ये फोटो हमें सिरसा से हमारे सहयोगी व मित्र लाज पुष्प ने भेजी है. और अगर कोई भी पसंद आने वाली फोटो देखने वाले के दिमाग की निशानी होती है तो फिर हमारे शायर मित्र के दिमाग की दाद देनी होगी. उनकी भेजी ये फोटो एक दिन इस देश की तस्वीर बदल सकती है.
अपने पूर्वजों के ज़माने से हम सुनते आये हैं कि अपने बुजुर्गों की अर्थी को कंधा बेटे देते हैं. भाई भतीजे, मित्र कोई भी. लेकिन दोहते,दामाद, बेटी का हाथ भी लग जाना जाने वाले पे 'भार' माना जाता रहा है. लेकिन समय और ज़रूरत के साथ मान्यताएं बदलीं. जिनके बेटे नहीं थे उनकी बेटियों ने मुखाग्नि दी. लेकिन अब एक नई जाग्रति आ रही है. ये जो चित्र आप देख रहे हैं इसमें अर्थी पर एक बुज़ुर्ग महिला का पार्थिव शरीर है. और अर्थी को कंधा दिए दो महिलाओं में से एक इस बुजर्ग की बेटी और दूसरी बहु है. तब भी कि जब ईश्वर की कृपा से इस बुज़ुर्ग महिला के बेटे भी हैं.
दरअसल सोच बदल रही है. एक ज़माना था जब घर की महिलाएं अर्थी उठते समय घर से बाहर ही नहीं निकलती थीं. फिर उन्हें श्मशान घाट से काफी दूरी पर रोक दिया जाने लगा. आज वे श्मशान घाट तक आ रही हैं, मगर मुखाग्नि से पहले आज भी उन्हें कुछ दूर भेज दिया जाता है.
सती हो जाने का डर ही इसकी अकेली वजह नहीं रही होगी. रूढ़िवादिता की रीढ़ में गाठें और भी होती हैं. मगर अब सोच बदल रही है. अब इस बहू की ही बात करें तो वो मान के चलती है कि जब उसे ससुराल में बेटी सा प्यार मिला है तो वो भी बेटे या बेटी की तरह परिवार की जिम्मेवारी क्यों नहीं उठा सकती. बेशक इन बहू और बेटियों को ऐसा करने की प्रेरणा एक धार्मिक स्थान से मिली है.
अपने पूर्वजों के ज़माने से हम सुनते आये हैं कि अपने बुजुर्गों की अर्थी को कंधा बेटे देते हैं. भाई भतीजे, मित्र कोई भी. लेकिन दोहते,दामाद, बेटी का हाथ भी लग जाना जाने वाले पे 'भार' माना जाता रहा है. लेकिन समय और ज़रूरत के साथ मान्यताएं बदलीं. जिनके बेटे नहीं थे उनकी बेटियों ने मुखाग्नि दी. लेकिन अब एक नई जाग्रति आ रही है. ये जो चित्र आप देख रहे हैं इसमें अर्थी पर एक बुज़ुर्ग महिला का पार्थिव शरीर है. और अर्थी को कंधा दिए दो महिलाओं में से एक इस बुजर्ग की बेटी और दूसरी बहु है. तब भी कि जब ईश्वर की कृपा से इस बुज़ुर्ग महिला के बेटे भी हैं.
दरअसल सोच बदल रही है. एक ज़माना था जब घर की महिलाएं अर्थी उठते समय घर से बाहर ही नहीं निकलती थीं. फिर उन्हें श्मशान घाट से काफी दूरी पर रोक दिया जाने लगा. आज वे श्मशान घाट तक आ रही हैं, मगर मुखाग्नि से पहले आज भी उन्हें कुछ दूर भेज दिया जाता है.
सती हो जाने का डर ही इसकी अकेली वजह नहीं रही होगी. रूढ़िवादिता की रीढ़ में गाठें और भी होती हैं. मगर अब सोच बदल रही है. अब इस बहू की ही बात करें तो वो मान के चलती है कि जब उसे ससुराल में बेटी सा प्यार मिला है तो वो भी बेटे या बेटी की तरह परिवार की जिम्मेवारी क्यों नहीं उठा सकती. बेशक इन बहू और बेटियों को ऐसा करने की प्रेरणा एक धार्मिक स्थान से मिली है.
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