चाले चली जा रही है, मीडिया को घेरने की
बाबा रामदेव से अन्ना हजारे के आंदोलन तक मीडिया विशेषतः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कव्हरेज ने पल-पल की खबरों से राजनीति में एक अच्छी खांसी बैचेनी एवं खलबली पैदा कर दी थी। राजनीति के गलियारों में अच्छे-अच्छे बयान वीर भी अपनी-अपनी मांद में जा छिपे थे। कई सांसद तो खुद अपने ही घर में कैद की स्थिति में थे। भारत के भाग्य विधाता अपने हुए अपमान को भूले न भुला पा रहे हैं। इसी बीच प्रेस आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व न्यायाधीश मार्कंण्डेय काटजू ने मीडिया की स्वतंत्रता की सीमा की क्या बात कही कि एक नई बहस ही चल निकली है। वैसे तो मीडिया के खिलाफ लगभग अधिकांश राजनीतिक दलों की एक ही मान्यता है कि मीडिया आदमी की निजी जिंदगी में ज्यादा तांक झांक करने लगा है? मीडिया छोटी-छोटी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत कर दिन भर उसी खबर की चीर फाड़ करता रहता है? कई बार तो स्वयं ही जज की भूमिका अदा कर प्रकरणों पर अपना फैसला भी सुनाता रहता है? कभी-कभार करमचंद जासूस की तरह जासूसी करता भी दिखाई देता है?
आज मीडिया चेनलों की बढ़ती भीड़ किसी बाढ़ के दृश्य से कम नही है। सभी चैनल अपनी-अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिए कुछ भी परोस रहे है जिसे परिवार के साथ एक साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता। कभी ग्लेमर के प्रोग्राम, कभी प्रकृति को ले किसी हारर फिल्म के डरावने अंदाज से कमतर नहीं दिखाते है। सभी चैनलों को आप एक मिनट में देखें तो लगभग एक जैसे ही कार्यक्रम चलते नजर आयेंगे, फिर बात चाहे बलात्कार, लव स्टोरी, हंसी-मजाक या ग्लेमर की ही क्यों न हो। जिस तरह की सामग्री इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भारतीय समाज को परोस रहा है उससे तो बहुत कुछ संभावना भारतीय संस्कृति के छिन्न-भिन्न होने की ही लगती है। ऐसे ढेरों वाकिया देखने को मिल जायेंगे जिसमें बच्चों ने, युवाओं ने चोरी, मर्डर के तरीके इन्हीं से सीखे है। फिर बात चाहे भारत की राजधानी दिल्ली में बच्चों की हो जिन्होंने अपनी दादी को ही पैसों के लिए मौत के घाट उतार दिया था। ठीक इसी तरह मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी पुलिस ने ऐसे युवाओं को पकड़ा है जिन्होंने ए. टी. एम. काटने का तरीका टी.वी. से ही सीखा था। आपको अच्छी तरह से याद होगा जब मुम्बई के ताज होटल पर आतंकवादियों का हमला हुआ था तब भी मीडिया द्वारा दिखाई जा रही पल-पल की घटना की ही मदद से विदेशों में बैठे इन आतंकियों के सरगना ने लाईव कार्यवाही देख अपने आतंकियों को आवश्यक दिशा निर्देश भी जारी कर रहे थे। यदि मीडिया लाईव नहीं दिखाता तो बहुत कुछ संभव था कि आतंकवादी की ओर से जो कार्यवाही जिस स्तर से हुई थी न हुई होती?
इसी तरह बोरबेल में आए दिन छोटे-छोटे बच्चों के गिरने की खबर सुनने को मिल ही जाती है। इसे भी मीडिया सारे अन्य को छोड़ लाईव प्रसारण करने की होड में ही जुट जाता है जिससे कहीं न कही आवश्यक मुद्दे पीछे ही छूट जाते है।
कई बार तो ऐसा लगता भी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी हदों को पार कर रहा है जिसके लिए निःसंदेह या तो स्वयं मीडिया या शासन को कोई लक्ष्मण रेखा तो खींचना ही होगी। आखिर इस लोकतंत्र में किसी को भी निरंकुश नहीं छोड़ा जा सकता। यहां कुछ हद तक जस्टिस मार्कंडेय ने जो पीड़ा मीडिया के सामने व्यक्त की है जायज है? आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मनोरंजन के नाम नंगाई, हंसी ठिठोली, द्विअर्थी शब्दों की भरमार, फिल्मी गाशिप पर ही अधिकांशतः केन्द्रित हो पूरा दिन चैनल निकाल रहे है जो नहीं होना चाहिए।
वास्तविक मुद्दों से दूर होता मीडिया अपनी जवाबदेही से बच नही सकता। खेल के नाम पर ऐसा लगता है कि क्रिकेट के अलावा भारत में कोई दूसरा खेल बचा ही नहीं है? इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि भारत जो गांव एवं कृषि प्रधान होते हुए भी यहां गत 15 वर्षों में लगभग 2.5 लाख किसानों ने खुदखुशी की है। गांव से शहर पलायन करने वालों की समस्या पर आज कोई चर्चा करने को तैयार नहीं है, आखिर जनता के मूल मुद्दों को कौन उठायेगा?
एक ओर हमारा समाज और विज्ञान अंधविश्वास को ज्ञान से दूर करने की बात करता है वही आज अंधविश्वास जादू टोने, टोटके, नजर को ले कई चैनल सिर्फ ओर सिर्फ अंधविश्वास ही परोस रहे है। मीडिया सास बहू के रिश्तों को ऐसा पेश कर रहा है जैसे बहू और सास कोई डान हो? बच्चों के ग्लेमरस इतने प्रोग्राम होते है कि उनका बचपन ही कही इसकी चकाचौंध में गुम जाता है। कई बार तो बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर कार्यक्रम के जजों का कमेंट इतना भारी पड़ता है कि बच्चे डिप्रेशन में चले जाते है। मुझे ऐसा लगता है कि अब समय आ गया है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए एक स्वस्थ्य, स्पष्ट गाईड लाईन तो होनी ही चाहिए? जिससे जनता में इनकी अच्छी छवि के साथ लोगों का विश्वास इन पर बना रहे। ऐसा भी नहीं है कि सभी चैनल एक जैसे ही है कुछ स्वसुशान, स्वनियंत्रित, अनुशासित हो अच्छा कार्य भी कर रहे है।
एक और बुराई मीडिया में दाग के रूप में ‘‘पेड न्यूज’’ के रूप में आ रही है। इस मुद्दे पर समय-समय पर बहस भी होती है। अभी हाल ही में चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के विधायक उमलेश यादव के खिलाफ पहली बार कार्यवाही कर, तीन साल के लिए आयोग्य करार दिया हालांकि ‘‘पेड न्यूज’’ की बीमारी प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रानिक दोनों ही में व्याप्त है। इस बुराई को भी दोनों मीडिया को मिल लालच से ऊपर उठ अपने आत्मविश्वास एवं मनोबल से दूर करना ही होगा नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब शासन डण्डे के बल पर इन पर शासन करने की कुचेष्ठा करेगा। वह प्रेस की स्वतंत्रता के लिए इतिहास में काला अध्याय ही होगा। सभी को मिल तात्कालिक लाभ को छोड देर सबेर मीडिया में सुचिता को अपनाना ही होगा? हमें गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे आदर्शों को प्रेस की स्वतंत्रता, निष्पक्षता, निडरता को बनाए रखने के लिए अपने चाल-चरित्र को संभालना होगा बल्कि खुद को भी बेदाग रखने के लिए हर संभव प्रयास ईमानदारी के साथ करना होगा। तभी हम न केवल जनता का, प्रशासन का, शासन का विश्वास जीत पायेंगे बल्कि ये सभी मीडिया की कही बात को भी गंभीरता से लेंगे।
(लेखिका सूचना मंत्र पत्रिका की संपादक हैं)
मो. 9425677352
(शशि फीचर)
डॉ. शशि तिवारी
बाबा रामदेव से अन्ना हजारे के आंदोलन तक मीडिया विशेषतः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कव्हरेज ने पल-पल की खबरों से राजनीति में एक अच्छी खांसी बैचेनी एवं खलबली पैदा कर दी थी। राजनीति के गलियारों में अच्छे-अच्छे बयान वीर भी अपनी-अपनी मांद में जा छिपे थे। कई सांसद तो खुद अपने ही घर में कैद की स्थिति में थे। भारत के भाग्य विधाता अपने हुए अपमान को भूले न भुला पा रहे हैं। इसी बीच प्रेस आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व न्यायाधीश मार्कंण्डेय काटजू ने मीडिया की स्वतंत्रता की सीमा की क्या बात कही कि एक नई बहस ही चल निकली है। वैसे तो मीडिया के खिलाफ लगभग अधिकांश राजनीतिक दलों की एक ही मान्यता है कि मीडिया आदमी की निजी जिंदगी में ज्यादा तांक झांक करने लगा है? मीडिया छोटी-छोटी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत कर दिन भर उसी खबर की चीर फाड़ करता रहता है? कई बार तो स्वयं ही जज की भूमिका अदा कर प्रकरणों पर अपना फैसला भी सुनाता रहता है? कभी-कभार करमचंद जासूस की तरह जासूसी करता भी दिखाई देता है?
आज मीडिया चेनलों की बढ़ती भीड़ किसी बाढ़ के दृश्य से कम नही है। सभी चैनल अपनी-अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिए कुछ भी परोस रहे है जिसे परिवार के साथ एक साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता। कभी ग्लेमर के प्रोग्राम, कभी प्रकृति को ले किसी हारर फिल्म के डरावने अंदाज से कमतर नहीं दिखाते है। सभी चैनलों को आप एक मिनट में देखें तो लगभग एक जैसे ही कार्यक्रम चलते नजर आयेंगे, फिर बात चाहे बलात्कार, लव स्टोरी, हंसी-मजाक या ग्लेमर की ही क्यों न हो। जिस तरह की सामग्री इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भारतीय समाज को परोस रहा है उससे तो बहुत कुछ संभावना भारतीय संस्कृति के छिन्न-भिन्न होने की ही लगती है। ऐसे ढेरों वाकिया देखने को मिल जायेंगे जिसमें बच्चों ने, युवाओं ने चोरी, मर्डर के तरीके इन्हीं से सीखे है। फिर बात चाहे भारत की राजधानी दिल्ली में बच्चों की हो जिन्होंने अपनी दादी को ही पैसों के लिए मौत के घाट उतार दिया था। ठीक इसी तरह मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में भी पुलिस ने ऐसे युवाओं को पकड़ा है जिन्होंने ए. टी. एम. काटने का तरीका टी.वी. से ही सीखा था। आपको अच्छी तरह से याद होगा जब मुम्बई के ताज होटल पर आतंकवादियों का हमला हुआ था तब भी मीडिया द्वारा दिखाई जा रही पल-पल की घटना की ही मदद से विदेशों में बैठे इन आतंकियों के सरगना ने लाईव कार्यवाही देख अपने आतंकियों को आवश्यक दिशा निर्देश भी जारी कर रहे थे। यदि मीडिया लाईव नहीं दिखाता तो बहुत कुछ संभव था कि आतंकवादी की ओर से जो कार्यवाही जिस स्तर से हुई थी न हुई होती?
इसी तरह बोरबेल में आए दिन छोटे-छोटे बच्चों के गिरने की खबर सुनने को मिल ही जाती है। इसे भी मीडिया सारे अन्य को छोड़ लाईव प्रसारण करने की होड में ही जुट जाता है जिससे कहीं न कही आवश्यक मुद्दे पीछे ही छूट जाते है।
कई बार तो ऐसा लगता भी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी हदों को पार कर रहा है जिसके लिए निःसंदेह या तो स्वयं मीडिया या शासन को कोई लक्ष्मण रेखा तो खींचना ही होगी। आखिर इस लोकतंत्र में किसी को भी निरंकुश नहीं छोड़ा जा सकता। यहां कुछ हद तक जस्टिस मार्कंडेय ने जो पीड़ा मीडिया के सामने व्यक्त की है जायज है? आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मनोरंजन के नाम नंगाई, हंसी ठिठोली, द्विअर्थी शब्दों की भरमार, फिल्मी गाशिप पर ही अधिकांशतः केन्द्रित हो पूरा दिन चैनल निकाल रहे है जो नहीं होना चाहिए।
वास्तविक मुद्दों से दूर होता मीडिया अपनी जवाबदेही से बच नही सकता। खेल के नाम पर ऐसा लगता है कि क्रिकेट के अलावा भारत में कोई दूसरा खेल बचा ही नहीं है? इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि भारत जो गांव एवं कृषि प्रधान होते हुए भी यहां गत 15 वर्षों में लगभग 2.5 लाख किसानों ने खुदखुशी की है। गांव से शहर पलायन करने वालों की समस्या पर आज कोई चर्चा करने को तैयार नहीं है, आखिर जनता के मूल मुद्दों को कौन उठायेगा?
एक ओर हमारा समाज और विज्ञान अंधविश्वास को ज्ञान से दूर करने की बात करता है वही आज अंधविश्वास जादू टोने, टोटके, नजर को ले कई चैनल सिर्फ ओर सिर्फ अंधविश्वास ही परोस रहे है। मीडिया सास बहू के रिश्तों को ऐसा पेश कर रहा है जैसे बहू और सास कोई डान हो? बच्चों के ग्लेमरस इतने प्रोग्राम होते है कि उनका बचपन ही कही इसकी चकाचौंध में गुम जाता है। कई बार तो बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर कार्यक्रम के जजों का कमेंट इतना भारी पड़ता है कि बच्चे डिप्रेशन में चले जाते है। मुझे ऐसा लगता है कि अब समय आ गया है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए एक स्वस्थ्य, स्पष्ट गाईड लाईन तो होनी ही चाहिए? जिससे जनता में इनकी अच्छी छवि के साथ लोगों का विश्वास इन पर बना रहे। ऐसा भी नहीं है कि सभी चैनल एक जैसे ही है कुछ स्वसुशान, स्वनियंत्रित, अनुशासित हो अच्छा कार्य भी कर रहे है।
एक और बुराई मीडिया में दाग के रूप में ‘‘पेड न्यूज’’ के रूप में आ रही है। इस मुद्दे पर समय-समय पर बहस भी होती है। अभी हाल ही में चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के विधायक उमलेश यादव के खिलाफ पहली बार कार्यवाही कर, तीन साल के लिए आयोग्य करार दिया हालांकि ‘‘पेड न्यूज’’ की बीमारी प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रानिक दोनों ही में व्याप्त है। इस बुराई को भी दोनों मीडिया को मिल लालच से ऊपर उठ अपने आत्मविश्वास एवं मनोबल से दूर करना ही होगा नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब शासन डण्डे के बल पर इन पर शासन करने की कुचेष्ठा करेगा। वह प्रेस की स्वतंत्रता के लिए इतिहास में काला अध्याय ही होगा। सभी को मिल तात्कालिक लाभ को छोड देर सबेर मीडिया में सुचिता को अपनाना ही होगा? हमें गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे आदर्शों को प्रेस की स्वतंत्रता, निष्पक्षता, निडरता को बनाए रखने के लिए अपने चाल-चरित्र को संभालना होगा बल्कि खुद को भी बेदाग रखने के लिए हर संभव प्रयास ईमानदारी के साथ करना होगा। तभी हम न केवल जनता का, प्रशासन का, शासन का विश्वास जीत पायेंगे बल्कि ये सभी मीडिया की कही बात को भी गंभीरता से लेंगे।
(लेखिका सूचना मंत्र पत्रिका की संपादक हैं)
मो. 9425677352
(शशि फीचर)
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