सुप्रिम कोर्ट और ट्रायल कोर्ट के न्यायिक दृष्टिकोण में अन्तर से उपजे हालात
अदालत अपराध में सजा सुना सकती हैं लेकिन जमानत नही दे सकती
अदालत अपराध में सजा सुना सकती हैं लेकिन जमानत नही दे सकती
बैतूल // भारत सेन
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भारतीय संविधान में जीवन और स्वतंत्रता को सर्वोच्च स्थान दिया गया हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और दण्ड प्रक्रिया संहिता के जमानत संबंधित प्रावधान धारा 437, 438, 439 के बीच हमेशा से टकराव की स्थिति रही हैं। अपराधिक प्रकरणों में जमानत नियम है और न्यायिक अभिरक्षा अपवाद हैं। देश की शीर्ष अदालतो और विचारण न्यायालय के भिन्न न्यायिक दृष्टिकोण ने जमानत के कानून को विवादित बना दिया गया है।
विचारण न्यायालय और सुप्रिम कोर्ट के जमानत संबंधित आदेश में संवैधानिक प्रावधान और जमानत के कानून में जमीन आसमान का अन्तर स्पष्ट दिखाई पड़ता हैं। सुप्रिम कोर्ट कहती हैं कि अपराध विधि में ऐसा कोई अपराध नही जिसमें जमानत नही दी जा सकती हैं लेकिन विचारण न्यायालय की प्रस्थिति एक ऐसी अदालत की स्थिापित हो चुकी हैं जो सजा तो सुना सकती हैं लेकिन जमानत नही दे सकती। विचाराधीन बंदी अपने वकील से सवाल पूछता है कि सजा सुनाने वाली अदालत जमानत क्यों नही दे सकती? जिला जेल में विचाराधीन महिला बंदियों की दशा को देखकर यह सवाल परेशान करने लगता हैं। जिन अपराधो में सुप्रिम कोर्ट और हाई कोर्ट जमानत दे सकती हैं उन्ही मामलो में विचारण न्यायालय ठीक विपरीत आचरण क्यों करती हैं? महिला और पुरूष दोनो के मामलो में विचारण न्यायालय यंत्रवत् जमानत अर्जी खारिज करती हैं। मामला तब बहस का विषय बनता हैं जब वह देश के हाई प्रोफाईल लोगो जिनमें विधायक, सांसद और मंत्री की जमानत अर्जी विचारण न्यायालय खारिज कर देती हैं तो संवैधानिक विधि की सर्वोच्चता और यंत्रवत् खारिज जमानत का आदेश सवालो की जद में आ जाता है।
सुप्रिम कोर्ट, हाईकोर्ट और विचारण न्यायालय के जमानत के कानून को लेकर विस्तृत अध्ययन और शोध किया जाय तो न्यायिक दृष्टिकोण हर स्तर पर अगल अलग दिखाई पड़ता है। सुप्रिम कोर्ट और हाईकोर्ट दोनो संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए जमानत का आदेश पारित करते हैं जबकि विचारण न्यायालय प्रकरण की परिस्थिति और अपराध की गंभीरता से जुड़े वाक्यों को दोहराते हुए यंत्रवत् जमातन याचिका खारिज करतें चले जा रहे हैं।
विचारण न्यायालय की भूमिका जमानत याचिका खारिज करने वाली तब मामलूम पडऩे लगती है जबकि वह महिलाओ की जमानत याचिका पर बिना कोई न्यायिक दृष्टिकोण का उल्लेख किए ही अन्य याचिका की तरह खारिज कर देती हैं। अपराध का हर प्रकरण एक अलग तरह का विशिष्ट होता जरूर है लेकिन जमानत याचिका खारिज किए जाने के आदेश लगभग एक तरह के ही होते हैं जिन्हे यंत्रवत् लिख दिया जाता हैं। अपराध गंभीर परिस्थिति का है इसलिए जमानत दिया जाना उचित प्रतीत नहीं होता लिखकर विचारण न्यायालय जमानत याचिका उन मामलों में भी खारिज कर देते हैं जिनमें प्रारंभिक तौर पर अपराध गठित नही होता हैं और पुलिस द्वारा पेश किए गए दस्तावेजो को स्वीकार कर लिए जाने की दशा में भी आरोपी को सजा नही सुनाई जा सकती। सुप्रिम कोर्ट के विधिक दृष्टिकोण का जमानत संबंधित मामलो में विचारण न्यायालय अनुसरण करते ही नही हैं।
हाईकोर्ट के विधिक दृष्टिकोण की जानकारी विचारण न्यायालय को दिए जाने के बावजूद, विद्वान न्यायिक अधिकारी प्रकरण की परिस्थिति भिन्न लिखकर यंत्रवत् जमानत याचिका खारिज कर देते हैं। लेकिन जब मामला हाईकोर्ट के पास पहुचता हैं तो उस पर बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए ही जमानत आदेश में लिख देती हैं कि हमारे विचारो में जमानत दिया जाना उचित प्रतीत होता हैं। इससे यह पूर्णत: मामला न्यायिक विवेक का बन जाता हैं। न्यायिक विवेक में भिन्नता की कीमत आम आदमी चुकाता हैं। एक मजिस्ट्रेट न्यायालय द्वारा विचारणीय मामले में भी आरोपी को जमानत के लिए उच्च न्यायालय की शरण लेनी पड़ती हैं और करीब तीन से चार माह तक न्यायिक अभिरक्षा में जेल में रहना पड़ जाता हैं। संवैधानिक अधिकार होने के बावजूद आरोपी को जमानत याचिका की सुनवाई के लिए 90 दिनों तक आरोप पत्र पेश होने का इंतजार करना पड़ता हैं, फिर उसके बाद हाई कोर्ट में सुनवाई के लिए करीब एक से दो माह तक इंतजार करने के लिए मजबूर रहता हैं। हाईकोर्ट में लम्बित जमानत याचिकाओं की संख्या भयावाह स्थिति को बताती हैं। हाईकोर्ट में जमानत याचिकाओं के पेश होने की प्रतिदिन की दर और निराकरण की दर में भारी अंतर हैं। अब यह स्थापित हो चुका है कि विचारण न्यायालय जमानत याचिका खारिज करती हैं और हाईकोर्ट ज्यादातर जमानत याचिका गुण दोष के आधार पर स्वीकार करती हैं जिसमें वकील की बहस की भूमिका गौण हैं। यह स्थिति हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करने वाले अधिवक्ताओं को जमानत का बड़ा कारोबारी अवसर देती हैं।
मप्र आबकारी अधिनियम 1915 के तहत पंजीबद्ध अपराध हमेशा विवादो में रहे हैं और समाचार पत्रो में भी छपते रहे हैं। शिकायत इस बात की रहती हैं कि आबकारी निरीक्षक ग्रामीण क्षेत्रों में शराब कम मात्रा में जप्त करते हैं और शराब में पानी मिलाकर ज्यादा मात्रा बताकर अपराध धारा में बढ़ोत्तरी कर देते हैं। कभी कभी तो चार पांच स्थानों पर छापा मारकर जप्त की गई शराब का प्रकरण किसी एक आदमी पर बना देते हैं, बाकी से अवैधानिक वसूली करके छोड़ देते हैं। अपराध की गंभीरता को बढ़ाने के लिए जप्त शराब में जहर भी मिला दिया जाता हैं ताकि आरोपी को जमानत की सुविधा का लाभ नही मिल सके। आबकारी अधिकारी, शराब ठेकेदार के आदमियों को साथ में लेकर दबिश देते हैं। न्यायालय में जैसा कि अधिकारी चाहते हैं वैसा होता भी हैं। अबकारी अधिनियम के तहर पंजीबद्ध अपराध में विचारण का क्षेत्राधिकार मजिस्ट्रेट न्यायालय को है जिसमें अधिकतम दण्ड तीन वर्ष का और जुर्माना 25 हजार रूपए का है। आबकारी अधिनियम के तहत पेश किए गए परिवाद में जिनमें 50 लीटर से अधिक या जहरीली शराब का पाया जाना बताया जा रहा होता हैं मजिस्ट्रेट यह मानकर चलते हैं कि उन्हे जमानत की सुविधा प्रदान करने का अधिकार विचारण के किसी भी चरण में नहीं हैं। सत्र न्यायालय के विद्वान न्यायिक अधिकारी यत्रवत् जमानत अर्जी खारिज कर देते हैं। आबकारी मामला भले ही मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय हो लेकिन जमानत की सुविधा का लाभ प्राप्त करने के लिए हाईकोर्ट जाना आरोपी की मजबूरी बन गया हैं। जमानत संबंधित कानून और न्याय के सिद्धांतो की व्याख्या करने वाले सुप्रिम कोर्ट जज भी विचारण न्यायालय के समक्ष जमानत याचिका पर बसह कर ले तो भी वह आबकारी कानून के अपराध में जमानत याचिका स्वीकार नही करवा सकते। यही स्थिति सत्र न्यायालय में भी बनती हैं।
महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध सीताराम पोपट वेटल एवं एक अन्य, 2004(3)सीसीएससी 1428 में सुप्रिम कोर्ट ने दण्ड प्रक्रिय संहिता की धारा 437 एवं 439 की व्याख्या करते हुए कहा कि जमान आदेश में प्रथम दृष्ट्या इस निष्कार्ष पर पहुंचने के लिए कारण को निर्दिष्ट करना आवश्यक होता है कि जमानत क्यों प्रदान की जा रही थी, विशिष्ट रूप से वहां, जहां अभियुक्त को गम्भीर अपराध कारित करने के लिए आरोपित किया गया था। जमानत के आवेदन पर विचार करने वाले न्यायालयों के लिये अन्य परिस्थितियों के बीच जमानत प्रदान करने के पूर्व इन बातो पर भी विचार करना आवश्यक हैं। ये हैं अभियोग की प्रकृति और दोषसिद्धि के मामले में दण्ड की कठोरता और समर्थनकारी साक्ष्य की प्रकृति। अभियोजन साक्षी को दूषित करने की युक्तियुक्त आशंका या परिवादी को धमकी देने की आशंका। आरोप के समर्थन में न्यायालय का प्रथम दृष्टया समाधान।
ऐसे कारणों से असम्बद्ध कोई आदेश विवेक का प्रयोग न करने से ग्रसित होता हैं। जमानत प्रदान करने के प्रक्रम पर साक्ष्य की ब्यौरेवार परीक्षा और मामले के गुणावगुणों के व्यापक दस्तावेजीकरण को नहीं किया जाना चाहिये। परन्तु, इसका यह तात्पर्य नहीं कि जमानत प्रदान करते समय प्रथम दृष्टया यह निष्कर्ष निकालने के लिये कुछ कारणों को निर्दिष्ट किये जाने की अपेक्षा नही की जाती कि जमानत क्यों प्रदान की जा रही थी। यद्यपि आपराधिक पूर्ववृत्त सदैव ही इस प्रश्र के अवधारक नहीं होते कि क्या जमानत प्रदान की जानी चाहिये, फिर भी उनकी सुसंगति की पूर्ण रूप से उपेक्षा नही की जा सकती।
सुप्रिम कोर्ट के द्वारा स्थापित किए गये विधि और न्याय के सिद्धांतो का विचारण न्यायालय द्वारा अनुसरण किया जाना तो दूर की बात हैं, जमानत के आदेश में उल्लेख तक नही किया जाता हैं। जमानत को लेकर अनिश्चितता का एक वातावरण बनाकर रखा गया हैं। इसे संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत जमानत को न्यायिक अधिकारी के विवेकाधिकार के अधीन होना प्रचारित किया गया हैं। भारत में विधिक विषयों पर शोध होते नहीं हैं और विधिक पत्रकारिता का अभाव हैं जिसके चलते देश के विद्वान न्यायधीशों और कानून विदें को सुझाव दे पाना सम्भव ही नही हैं।
कानून निर्माताओं ने जमानत के प्रावधान में दो महत्वपूर्ण शर्ते रखी हैं। पहला कि आरोपी फरार नही होगा दूसरा गवाहों को प्रभावित नही करेगा। हाई प्रोफाईल लोग जिसमें बड़े अपराधी और विधायक, सांसद और मंत्रीजी शामिल हैं इनके फरार होने की संभावना तो नही होती लेकिन गवाहों को प्रभावित कर पाने की पूर्ण सम्भावना होती हैं। इसके बावजूद हाईप्रोफाईल लोगों का अचानक स्वास्थ खराब हो जाता हैं और फिर वे इस आड़ में जमानत प्राप्त कर पाने में कामयाब हो जाते हैं जबकि कानून निर्माताओं ने जमानत की शर्तो में स्वास्थ को शामिल नही किया हैं। महिलाओं के प्रकरणों में कानून निर्माताओं ने दण्ड प्रक्रिया संहिता में 437(1)का प्रावधान इसलिए किया हैं ताकि सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय अजमानती अपराध में भी मजिस्ट्रेट तत्काल जमानत स्वीकार कर सके। लेकिन सच्चाई ठीक इसके विपरीत हैं। यदा कदा अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मजिस्ट्रेट कानून के इस प्रावधान का लाभ महिला को देते ही नही हैं और प्रशासनिक नियंत्रण का काम करने वाली हाई कोर्ट इस स्थिति पर कभी जवाब तलब तक नही करती। इसलिए गलतियां दोराई जाती रही हैं। जिला जेलो में विचारधीन महिला बंदियों की बड़ी संख्या इसका जीवंत प्रमाण है।
जमानत संबंधित कानून को लेकर सुप्रिम कोर्ट, हाईकोर्ट और विचारण न्यायालय के आदेशो के फर्क का अध्ययन कर लिया जाये तो कानून की एक मूल भूत कमी साफ दिखाई पड़ती हैं। कानून में पेशेवर अपराधी और प्रथम अपराधी में कोई फर्क नही किया गया हैं। दोनो को अलग अलग परिभाषित करना आवश्यक है। जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान आरोपी का पूर्व अपराधिक रिकार्ड न्यायालय के समक्ष पेश किए जाने के प्रावधान किए जाने चाहिए। इससे जमानत के प्रावधानों का लाभ प्रथम आरोपी को मिलेगा और लम्बी अवधी तक न्यायिक अभिरक्षा में जेल में रहने से उसके चरित्र पर विपरीत असर पडऩे से उसे बचाया जा सकेगा। विचारण न्यायालय को विचारण के किसी भी प्रक्रम पर न्यायालय में साक्षियों के कथनों के आधार पर स्वप्रेरणा से जमानत आदेश पारित करने के आज्ञापक प्रावधान किए जाने चाहिए।
ऐसा किए जाने के पीछे तर्क यह है कि अभियोजन साक्षियों के कथनों को लेखबद्ध कर लिए जाने के बाद उनको प्रभावित किए जाने का आधार समाप्त हो जाता है। कानून का डर जमानत से वंचित करके या लम्बे समय तक विचारण के दौरान न्यायिक अभिरक्षा में जेल में रखकर पैदा नही किया जा सकता हैं। कानून और न्याय में आस्था उसकी निष्पक्षता से पैदा होती हैं। विचारण न्यायालय द्वारा न्यायिक विवेक का प्रयोग सही दिशा में नही होने से आरोपी का कानून और न्याय के प्रति आस्था और सम्मान समाप्त हो जाता हैं और उसके पेशेवर अपराधी बनने की पूर्ण सम्भावना बन जाती हैं। सुप्रिम कोर्ट भले यह दोहराता रहे कि जमानत को लेकर कोई ठोस और सार्वभौमिक नियम नही बनाये जा सकते हैं लेकिन इससे सहमत नही हुआ जा सकता हैं। नियम बनाए जाने से पहले कुछ प्रयोग तो किए जाने की गुंजाईश तो हमेशा बनी रहती हैं।
भारत सेन
लेखक पेशे से विधिक पत्रकार है। 9827306273
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