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अनिल पुरोहित
भोपाल। पिछले दिनों नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की क्षेत्रीय बैठक में भाग लेने आए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने जल, जंगल और जमीन का जिक्र करते हुए बताया कि अमरकंटक तक मण्डला तक साल के पेड़ लगे हुए हैं और उनके सूखने की शिकायतें आ रही हैं
अगर साल के पेड़ सूख गए तो नर्मदा खत्म हो जाएगी। क्योंकि साल के पेड़ पानी छोड़ते हैं और वो क्यों सूख रहे हैं इसकी कोई चिंता नहीं कर रहा है? डॉ. रमन सिंह के इस तरह के उद्बोधन से यह बात तो सामने आई कि मध्यप्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा की चिंता कर रमन सिंह ने अपने इस भाषण के माध्यम से इस प्रदेश के लोगों की नर्मदा के प्रति चिंता और नर्मदा के संरक्षण के लिये किये जा रहे कार्यों पर तमाम सवाल उठा दिये?
डॉ. रमन सिंह ने अपने भाषण के दौरान जिस तरह के साल के पेड़ सूखने को लेकर हालांकि ठीक इसी तरह की चिंता जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नमामि देवी नर्मदा यात्रा के समापन के अवसर पर प्रधानमंत्री के समक्ष भी की थी और बड़ी ही बुलंद आवाज में नर्मदा के तट अमरकंटक पर उन्होंने अपने भाषण के दौरान यह तक कह डाला था कि अब नर्मदा को बचाने के लिये हरसंभव प्रयास किये जायेंगे। जिस अमरंकटक के किनारे शिवराज सिंह भाषण दे रहे थे ठीक उसी से कुछ ही दूरी पर अमरकंटक में एक कंपनी के द्वारा लगाये गये यूकेलिपटस के पेड़ इस बात की गवाही दे रहे थे कि हमारे नेता नर्मदा के संरक्षण के लिये कितने चिंतित हैं, क्योंकि यह यूकेलिपटस के पेड़ जहां और जितने एकड़ भूमि में लगे हुए हैं
वहाँ कभी साल के पेड़ हुआ करते थे, नेतागिरी और वाहवाही लूटने के उद्देश्य से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने चुटकी लेते हुए यह तक कह दिया था कि कुछ सरकारें थी जो यूकेलिपटस के पेड़ लगाया करती थें लेकिन अब यह सब नहीं चलेगा सवाल यह उठता है कि इस प्रदेश में २००३ के बाद तो भाजपा की ही सरकार है, क्या इस दौरान अमरकंटक में जिस जन्मभूमि पर कंपनी द्वारा यूकेलिपटस के पौधे लगाये जा रहे हैं वह इस दौरान नहीं लगाये गये और इसका लाभ मध्यप्रदेश सरकार को नहीं मिला फिर दूसरे पर उंगली उठाने भर से ही काम चल जाएगा, अपनी कथनी और करनी में मुख्यमंत्री को फर्क देखना चाहिए कि उनके ही शासनकाल में नर्मदा के उद्गम स्थल के लिये किये गये कार्यों में कितनी त्रुटियां अपनाई गई जिसके चलते नर्मदा की स्थिति आज यह है और भाषणों का यह दौर चलता रहा तो आगे क्या होगा यह तो भविष्य बताएगा?
लेकिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने ग्रीन ट्रिब्यूनल की क्षेत्रीय बैठक में अपने भाषण में जिस प्रकार से नर्मदा किनारे मध्यप्रदेश की जल, जंगल और जमीन का जिक्र किया इसके बावजूद भी यदि हमारे राजनेता नहीं चेते तो यही माना जाएगा कि उनकी कथनी और करनी में अंतर है वह कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं और यही सब खेल पिछले १३ वर्षों से भाजपा शासनकाल के दौरान चलता आ रहा है।
तभी तो यह स्थिति बनी है, इन सब मुद्दों को लेकर राजधानी के वरिष्ठ पत्रकार राघवेन्द्र सिंह ने दैनिक नया इंडिया के अपने नियमित कालम ‘न काहू से बैर में जो सटीक विवरण प्रस्तुत किया है उनके अनुसार अच्छी बातें तो बुरे लोग भी करते हैं। हमेशा लोग कामकाज से ही जाने जाते हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने जल, जंगेल और जमीन का जिक्र करते हुए बताया कि अमरकंटक से मंडला तक साल के पेड़ लगे हैं और उनके सूखने की शिकायत आ रही है। अगर साल के पेड़ सूख गये तो नर्मदा खत्म हो जाएगी।
क्योंकि साल के पेड़ पानी छोड़ते हैं और वो क्यों सूख रहे हैं इसकी कोई चिंता नहीं कर रहा है। इसमें खास बात यह है कि नर्मदा जो मध्यप्रदेश को जीवन रेखा है और इसकी चिंता रमन सिंह कर रहे हैं मध्यप्रदेश के लोग नहीं कर रहे हैं। बंदर, भालू जंगल छोड़ छोड़ कर बाजार और शहरों में आने लगे हैं क्योंकि हमने उनके घरों को उजाड़ दिया है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वे किसी अन्य राज्य को लेकर इसका जिक्र नहीं कर रहे। जाहिर है कि यह एहतियात उन्होंने मध्यप्रदेश को लेकर बरता होगा, क्योंकि एनजीटी के क्षेत्राधिकार में मध्यप्रदेश भी आता है और अक्सर राजधानी भोपाल के केरवा पहाड़ी और कोलार क्षेत्र में शेर, तेंदुए की आमद आम हो गई है। अक्सर शहर और गांव के लोगों से रात तो क्या दिन में भी जंगल महकमा इन इलाकों में जाने से रोकने की एडवाइजरी जारी करता है। यहां हम बता दें कि कोलार और केरवा इलाके में बस्तियों के साथ शिक्षण संस्थान भी खुल गये हैं। याने अब गाय बैलों के साथ आम आदमी भी शेर, तेंदुए की शिकारगाह में आ गया है।
मुद्दा यहीं से शुरू होता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने भावुक और संवेदनशील स्वभाव के अनुरूप एनजीटी के निर्णयों की जमकर तारीफ की। उन्होंने जो कहा उसका लब्बोलुआब यह है कि ट्रिब्यूनल की सक्रियता से भोपाल जिल स्टेशनों की तरह सुंदर बना हुआ है। यहां जंगल और नदियां एक तरह से सुरक्षित हैं। इन बातों से अलग दूसरी तस्वीर भी है। मसलन हम भोपाल का ही जिक्र करें तो एनजीटी ने बड़ी झील को बचाने के लिये निर्देश दिये थे। उनके पालन में हफ्तों नहीं महीनों बीत गये हैं लेकिन सरकार और प्रशासन का काम दीवार धकाने जैसा साबित हुआ है। मिसाल के तौर पर भोपाल के बीचोंबीच आये स्लाटर हाउस को हटाने के निर्देश दिये थे लेकिन सरकारी जलेबी नहीं इमरतीनुमा कोशिशों के चलते अभी तक यह टस से मस नहीं हुआ है।
जबकि एनजीटी ने नगर निगम, मुख्य सचिव तक को निर्देश दिये थे। मगर समूची कार्यवाही एनजीटी को थकाने वाली साबित हुई। ऐसे ही बड़ी झील को कहते तो भोपाल की लाइफ लाइन है लेकिन इसका दम घोंटने के लिये रिटर्निंग वाल कैचमेंट एरिया में बनाने के बजाय झील के अंदर ही बना दी गई। यह बात पिछले साल बारिश की है। वह तो अच्छा हुआ कि बरसात इतनी हुई कि झील ने खुद अपनी हद तय कर ली।
नतीजा यह हुआ कि रिटर्निंग वाल पानी में डूब गई और बड़ी झील कई मीटर दूर तक निकल गई। इस पर खुद मुख्यमंत्री ने झील किनारे घूम कर रिटर्निंग वाल तोडऩे के निर्देश दिये थे। मगर एनजीटी और सीएम के आदेश सुरक्षित स्थान पर रखे हुये है और समस्या का भी बालबांका नहीं हुआ है। ऐसी ही कहानी जो मुनारे झील के बाहर लगनी थीं वे झील के भीतर लगा दी गई। उन्हें भी एक साल से ढूंढा जा रहा है। मगर महापौर, चीफ सेके्रटरी और चीफ मिनिस्टर की बातों के बावजूद उन्हें ढूंढा नहीं जा सका है। याने झील का गला घोंटने का वाली सरहद न तो तोड़ी गई है और न ही मुनारे मिली हैं। आगे इसकी कोई संभाव ना भी नजर नहीं आते हैं। आगे देखें तो सरकारें गुड गवर्नेंस की बातें करती हैं।
मगर होता उसके उलट है। स्कूल शिक्षा का स्तर उठाने की बात होती है, परिणाम मेें गिरता हुआ दिखता है। अस्पतालों में मरीज का इलाज और दवा देने की बात होती है लेकिन न डॉक्टर होते हैं न दवाएं मिलती हैं। इसी तरह खेती को लाभ का धंधा बनाने की बात होती है और वह बनता है, मौत का धंधा। एनजीटी के और आदेश की बातें करें नर्मदा समेत नदियों से रेत निकालने और पहाड़ को खोदने से रोकने की लेकिन होता है इसके खिलाफ। पिछले दिनों मुख्यमंत्री ने कहा था कि रेत चोरी रोकने के लिये अब नदियों के हरेक घाट पर तो हथियारबंद लोगों की तैनाती नहीं की जा सकती। सरकार ऐलान कर चुकी है कि मरीजों के इलाज के लिये अस्पतालों में डॉक्टर नहीं मिल रहे हैं। इसका मतलब अब जिसको जैसे इलाज कराना हो वह खुद तय कर ले।
इसी तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने भाषणों में अक्सर कहती थीं गरीबी हटायेंगे। बाद में विरोधियों ने इसमें सुधार किया और कहा इंदिरा जी ने गरीबी तो नहीं गरीब को जरूर हटा दिया। ऐसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बातें करते हैं कि न खाऊंगा न खाने दूंगा। लेकिन भाजपा शासित राज्यों में देखें तो यहां लोग खा रहे हैं और खाने भी दे रहे हैं और लोग देख रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के नारे के खिलाफ आचरण करने वालों का कुछ नहीं बिगड़ रहा है। इस तरह की बातों के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं, लेकिन बात वहीं है कि अच्छी बातें तो बुरे लोग भी करते हैं। सही मायने में आदमी आचरण, व्यवहार और कर्मों से ही जाना जाता है। देश की सियासत और समाज में जो घट रहा है उसके लिये मशहूर कवि ओमप्रकाश आदित्य की कालजयी रचना प्रस्तुत है :- इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं, जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं, गधे हंस रहे हैं, आदमी रो रहा है हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है,
जवानी का आलम गधों के लिये है, ये रसिया, ये बादम गधों के लिये है, ये दिल्ली, ये पालम, गधों के लिये है, ये संसार साल गधों के लिये है, पिलाए जा साकी, पिलाए जा डट के, तू विहस्की के मटके पै मटके, मैं दुनियां को अब भूलना चाहता हूं, गधों की तरह झूमना चाहता हूं, घोड़ों को मिलती नहीं घास देखो, गधे खा रहे च्यवनप्राश देखो, यहाँ आदमी की कहाँ कब बनी है, ये दुनिया गधों के लिये ही बनी है, जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है, जो कोठै पे बोले वो सच्चा गधा है, जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है, जो माइक पे चीखे वो असली गधा है, मैं क्या बक गया हूं, ये क्या कह गया हूं, नहीं कि पिनक में कहां बह गया हूं, मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था, वो ठर्रा था, भीतर जो अटका हुआ था !!
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