शशिकान्त सुशांत
लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका एक छोटे समूह से बड़े समूह की ओर उन्मुख हो तो उसे सजीव माना जाता है, लेकिन जब वही मीडिया निजी संपदा का रूप धारण कर ले, अपने फायदे के लिए पत्र पत्रिकाएं छापे तो उसे कतई लोकतंत्र की मीडिया कहलाने का नैतिक अधिकार नहीं दिया जा सकता है। संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में मीडिया का प्रसार जितना बढ़ा है, वह आम जनता और सरकार के बीच कड़ी बनने की बजाय बाजार और कारपोरेट के बीच कड़ी बनने का साध्य और साधन बन गये हैं।देश में घोटालों का ऐसा जाल बुना जा रहा है जिसे देखो वह अपने स्तर से सरकारी माल को लूटने के इंतजाम में लगा है, उसके पास टेलीकॉम घोटाला से लेकर आदर्श सोसायटी घोटाले पर बोलने के लिए मुखर शब्द हैं। ऐसे ही गली कूचों में छपने वाले दर्जनों अखबारों को देखने के बाद इन पंक्तियों के लेखक ने पाया कि लगभग सभी अखबारों-पत्रिकाओं की हेड लाइन, एंट्रो, कंटेंट और यहां तक कि रेफरेंस भी एक समान थे। यानी कि वे सभी कथित पत्र-पत्रिकाओं ने एक ही जगह से खबरें व आलेख उड़ाए थे। किसी ने हेड लाइन तक चेंज करने की जहमत नहीं उठाई थी। चेंज कैसे करेंगे? समझ में आएगा तब न। कंप्यूटर आपरेटर ही संपादक और रिपोर्टर की भूमिका अदा कर रहा है तो पत्रकार को कौन पूछे। इन पत्र-पत्रिकाओं में देश की बड़ी खबरें जैसे ए.राजा का घोटाला प्रकरण, राडिया का टेप प्रकरण आदि सामान्य खबरें, जो कि राष्ट्रीय मीडिया में छायी हुई थीं, को छोड़कर किसी गली कूचे की एक भी खबर नहीं थी।
यों कहिए कि अलग से कोई ऐसी खबर थी ही नहीं जिसे लेकर इस तरह के कथित अखबारों को अखबार भी कहा जा सके। संपादकीय पढ़कर ऐसा लगा मानो किसी जमाने की बात कही गयी हो, वह भी किसी वेबसाइट रेफरेंस के साथ। कहने को ये पत्र-पत्रिका जिस गली और छोटे क्षेत्रों के लिए छपती हैं, उसके साथ भी न्याय नहीं कर सकी थीं तो इससे और क्या उम्मीद की जा सकती है? इनमें 90 फीसदी अखबारों में डीएवीपी और दिगी सरकार द्वारा दिए गये दो आधे-आधे पेज के विज्ञापन छपे हुए थे। जिस दुकान में ये पत्र-पत्रिकाएं छपती हैं उसका उद्देश्य समझने में क्या देरी हो सकती है? आखिर ये भी तो वहीं सब कर रहे हैं जो बड़े-बड़े घोटालेबाज अपनी हैसियत से माल उड़ाने के खेल में मगन हैं। कभी-कभी मन में ख्याल आता है कि मौका की देर है। क्या समाज और क्या देश सेवा? जन जागरण अभियान में जुटी ये पत्र-पत्रिकाएं उसी खेल को खेल रही हैं। ईमानदारी की सीख दूसरों को ही दी जा सकती है। अपनी ईमानदारी अपने मन की खेती है। यह ब्रह्माण्डीय सच है। आज देश और समाज को देखकर, मीडिया और गली कूचों की मीडिया को देखकर क्या ख्याल आ सकता है। क्या एनजीओ और इन पत्र-पत्रिकाओं की समाज-देश सेवा के पवित्र उद्देश्य में कहीं अंतर या खोट है? सरकार की नजरों में शायद यह अंतर नहीं दिखे। यह सुखद संयोग ही है कि ज्यादातर एनजीओ संचालक अखबार भी निकालते हैं। यह सोने पे सुहागा वाली दुकानदारी है।
कुकुरमुत्तों से ज्यादा तेजी से बढ़ रहे दैनिक, पाक्षिक, साप्ताहिक और मासिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका जन जागरण, समाज सुधार के कारक बनने की बजाय डीएवीपी से फर्जी प्रसार संख्या के बिना पर विज्ञापन पाने और कमाने तथा उगाही का हथियार बनाने का खेल बन गयी हैं। चोरी ही नहीं सीना जोरी करके खबरें और आलेख दूसरे अखबारों वेबसाइटों से उड़ाना और उसे ज्यों का त्यों छपाई के नाम पर पुताई करा देना इन समाचार पत्र-पत्रिकाओं का धंधा बन गया है। इस धंधे में वे सब जुड़ गए हैं जो पहले दलाली आदि का कार्य करते थे या कोई दूसरी दुकानदारी चलाते थे। डीएवीपी की दरियादिली से इस तरह के अन्य धंधों में लगे लोगों को अखबार मालिक बनकर विज्ञापन जुटाने, कमाने और नगर निगम, पुलिस और पीडब्लूडी आदि विभागों से उगाही करने का सुनहरा अवसर मिल जाता है। जिस आदमी को पत्रकारिता का मूल तत्व पता नहीं होता वह इस तरह के समाचार पत्र-पत्रिकाओं के संपादक होते हैं। पत्रकारों को नौकरी देना इनके वश की बात ही नहीं होती, क्योंंकि इन्हें उगाही मास्टर की जरूरत होती है, जो पत्रकार बनकर इन अखबार मालिकों के दुकान को संगमरमर से सजाने की महत्वाकांक्षा रखते हों। वैसे लोग उन्हें आसानी से मिल जाते हैं और इनका धंधा चमकने लगता है। एक ओर डीएवीपी का अंतरजाल है तो दूसरी ओर विभिन्न निर्माण एजेंसियों से मासिक उगाही का बंदोबस्त। कमाल की पत्रकारिता और जन जागरण का अभियान चलाए हुए हैं ऐसे समाचार पत्र-पत्रिकाएं। धन्य है सरकार जिसे यही पता नहीं है कि जिस अखबार की प्रसार संख्या को वह 25 हजार कागजी तौर पर मान्यता देती है वह 500 कॉपी भी नहीं छपते। जो छपते भी हैं वह बाजार और जनता की बीच जाने की बजाय घरों में रखकर फाइलें बनाने और उसे डीएवीपी में जमा करने के काम में लाया जाता है।
सरकार ज्यादा से ज्यादा समाचार पत्र-पत्रिकाओं को छपने का अवसर देती है उसे विज्ञापन मुहैया कराई जाती है ताकि उसमें दो चार लोगों को रोजगार भी मिल सके, लेकिन चोरी ही नहीं डकैती करके खबरें उड़ाना और बेशर्मी से उसे जस का तस प्रकाशित करना ऐसे समाचार पत्र-पत्रिकाओं का धंधा बन गया है, तो इसके लिए निश्चित रूप से प्रेस परिषद, सूचना प्रसारण मंत्रालय और डीएवीपी समान रूप से गुनाहगार कहे जा सकते हैं। ऐसी समाचार पत्र-पत्रिकाएं यदि जन जन तक खबरें नहीं पहुंचा पाती तो सरकारी विज्ञापन जन जन तक कैसे पहुंचते होंगे, जिसके लिए सरकार इन्हें लाखों का भुगतान करती है? आखिर इनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होने चाहिए? यह भी तो एक तरह का घोटाला ही है। जिस मद में जो राशि खर्च की जाती है और उसका मकसद पूरा नहीं हो पाता तो कहा जाता है कि सरकारी धन का गबन हो गया तो फिर यह भी गबन की श्रेणी में आने से कैसे बच सकता है?
बड़े प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक न्यूज संस्थानों के अलावा एक लाख से ऊपर भाषाई दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक एवं मासिक पत्र पत्रिकाएं हैं जो सिर्फ इसलिए लोकतंत्र का स्तंभ कहलाने का दंभ भरती हैं, क्योंकि उसे राज्य सरकारों और डीएवीपी के माध्यम से सालाना तीन-चार लाख का विज्ञापन आसानी से हासिल हो जाता है। इस तरह के समाचार पत्र-पत्रिकाएं तभी छापी जाती हैं जब उसे सरकारी विज्ञापन मिलते हैं, अन्यथा जनसेवा और देशसेवा के अन्य साधन भी हैं। खबर कंटेंट के नाम पर चोरी ही नहीं बल्कि डकैती करके उड़ाई गयीं खबरें हैं। इंटरनेट के जमाने में कई वेबसाइट और ब्लाग हैं जहां से इनका बारह पेजी पेट आसानी से ठूंस-ठूंस कर भर जाता है। तो फिर ये पत्रकारों की सेवा क्यों लेंगी? सरकारी धन विज्ञापन के रूप में मिलता है। वह समाज सेवा के नाम पर मिलता है, लेकिन उसका उपयोग शत-प्रतिशत निजी कार्यों के लिए होता है। 12 पेज का अखबार छापने वाला कथित पत्रकारीय दुकानदार के पास एक अदद कुछ जानकारी रखने वाला पत्रकार भी नहीं होता जो चोरी करके लिए गए हेडलाइन को भी चेंज कर सके।
कंटैंट में सरेआम दूसरे अखबारों और साइटों के नाम रेफरेंस के तौर पर उपलब्ध रहता है। जैस 'जागरण को बताया' 'उजाला ने उजागर किया' भड़ास मीडिया के अनुसार आदि शब्द हरेक पेज में देखे जा सकते हैं। कायदे से डीएवीपी का नियम तो बहुत सख्ती बरतने की बातें कहता है, लेकिन हकीकत में यह सब उल्टा है और बदस्तूर चल रहा है। चोरी की खबरों को लेकर प्रैस परिषद को कड़े रूख अपनाने होंगे। डीएवीपी को हरेक माह बैठक करके अखबारों के कंटेंट की जांच कराने चाहिए और 20 प्रतिशत तक दूसरे अखबारों/वेबसाइटों के कंटेंट मेल खाते हों तो उस कथित अखबार-पत्रिका को आजीवन विज्ञापन से वंचित करने की कार्रवाई करनी होगी। तब ही जाकर कुछ सुधार की गुंजाइश बन सकती है। समाज और देश सेवा के नाम पर सरकारी खजाने की छोटी-मोटी ही सही इस तरह की लूट भी लूट ही है। इसके लिए अलग पैमाना नहीं बनाया जा सकता। इन्हें भी सजा भुगतना होगा। जो छोटे-बड़े अखबार-पत्रिका समाज-देश सेवा का पहलू और लोकतंत्र का एक स्तंभ कहलाने का दंभ भरते हंै तो उसे पहले बुद्धिजीवियों को उचित वेतनमान देने का दम भी रखना होगा। यह नियम सरकारी अंकुश से ही अमल में आ सकता है। सरकार विचार करे।
इस तरह की समाचार पत्र-पत्रिकाएं जिन मुद्रणालयों में मुद्रित होती हैं, उसकी क्षमता 24 घंटे में 20 हजार कापी से ज्यादा की नहीं हो सकती, लेकिन उसी मुद्रक के यहां 100 से ज्यादा समाचार पत्र-पत्रिकाओं के घोषणा पत्र संबधी कागजात डीएवीपी के पास बेशर्मी से जमा किये गये होते हैं और अधिकारी उसे मान्यता भी देते हैं। कमाल की है व्यवस्था और कमाल के हैं समाज और देश सेवा करने वाले ये अखबार और पत्रिकाएं। जिस मुद्रणालय में मासिक आधार पर 6 लाख कॉपी छापने की क्षमता निर्धारित है वहीं से 7 करोड़ से ज्यादा अखबारी पेज मुद्रित होकर बदस्तूर बाजार और सरकार के पास पहुंच रहे हैं। फिर भी अधिकारी चुप हैं तो इसके पीछे का खेल देश का हरेक आदमी जानता है, लेकिन कम से कम राष्ट्रीय धन की खुदरा लूट से देश को बचाने के लिए कुछ करना ही होगा।
प्रसार संख्या का दावा और हकीकत-जिस समाचार पत्र का संपादक खबर का मर्म नहीं समझ सकता वह विज्ञापन को जनता तक पहुंचाने का कार्य कैसे कर सकता है। सरकार विज्ञापन इसलिए देती है ताकि उसकी नीतियां जन जन तक पहुंचे और लोग उसका लाभ उठाएं। लेकिन अपनी गली में भी गुमनाम ऐसे पत्र पत्रिकाएं जब पड़ोस में दीया नहीं जला सकती तो कुछ दूर तक वह कैसे पहुंचेगी। आलम यह है कि जिस अखबार-पत्रिका की छपाई 500 तक नहीं होती उसे 30 हजार प्रसार संख्या के साथ सरकार मान्यता देकर उसे विज्ञापन के रूप में धन सेवा प्रदान करती है। प्रसार संख्या के लिए एक समग्र नीति बननी चाहिए ताकि हकीकत के आधार पर ही सरकारी धन की लूट को इजाजत दी जाए। लोकतंत्र सशक्तीकरण और समाज सेवा के नाम पर 100 कापियां छापकर फाइल बनाने और प्रसार संख्या 50 हजार दिखाने वालों को बेनकाब करना समय की जरूरत है।
सरकार इस पर अंकुश लगाए। स्वतंत्र पत्रकारों को लेकर आयोग बनाए जो इन पत्र-पत्रिकाओं की खबर चोरी और प्रसार संख्या पर नजर रखे। सरकार को रिपोर्ट दे। सरकार उस पर उचित कार्रवाई करे। जिस धन का सदुपयोग इन्हें जिंदा रखने के लिए दिया जा रहा है, वह इनकी जेब में जा रहा है। हजारों ईमानदार बुद्धिजीवी को अपने काम का उचित दाम नहीं मिल रहा और पत्र-पत्रिका के दुकानदारों की चांदी है। यह कब तक चलेगा अंबिका सोनी जी?
(लेखक पत्रकार हैं और दैनिक भास्कर, प्रभात खबर में अपनी सेवाएं दे चुके हैं)
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