Sunday, November 13, 2011

बेटी है तो संसार है

डॉ. शशि तिवारी
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                बेटी शब्द सुनते ही अन्तःकरण में अनायास ही स्नेह, प्रेम, दुलार की लहर का कोमल सा अहसास नारी के ममत्व को पूर्णता प्रदान करता है। बेटी अलग-अलग रूपों में जीवन को जीने के मायने सिखाती है और एक साथ दो कुलों का मान भी बढ़ाती है।  आदमी के लिये एक शक्ति का कार्य कर परोक्ष रूप से उसे नियंत्रित भी करती है। नारी के तीनों रूपों क्रमशः बेटी, स्त्री और माँ, स्नेह, प्रेम और श्रृद्धा का प्रतिरूप होती है। निःसंदेह स्नेह अपने से छोटों के लिये प्रेम बराबर की स्थिति एंव श्रृद्धा अपने से बड़ों के लिये होती है, स्नेह प्रेम की पहली कड़ी है और बिना प्रेम किये श्रृद्धा फल नहीं सकती। यूं तो पूरा आध्यात्म प्रेम पर ही टिका है और बिना प्रेम के पूरा संसार ही अधूरा है। महर्षि शांडिल्य तो स्नहे, प्रेम और श्रृद्धा के साथ अपने को मिटाने, न्यौछावर करने, गलाने पर जोर देते हैं। यदि यह सूत्र समझ में आजाए तो सारी की सारी समस्या और द्वेष ही खत्म हो जाए। जैसे-जैसे हम तथा कथित ज्ञानी होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे ही हमारी प्रीति प्रेम और श्रृद्धा भी खत्म होती जा रही है। इस बावत् संत कबीर ने भी कहा है कि ‘‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय’’ हकीकत में अज्ञान ही प्रेम है । बेटी ही कल के वृक्ष का ब्लूपिं्रट है, जब ये ही नहीं होगी तो कल क्या होगा?
                आज बेटी को ले बड़े ही भयाभय बताने वाले आंकड़े आ रहे है पंजाब में प्रतिहजार जहां ये 830, हरियाणा में 846 एवं म.प्र. में संतोषजनक स्थिति 912 कहे तो कोई बुराई नहीं होगी, बिगड़ता लिंगानुपात न केवल आने वाले भविष्य के लिये खतरा है बल्कि संस्कृति के लिये भी काल साबित होगा। जाने-अनजाने में आज हम कहीं न कहीं रक्ष संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं, तभी तो सरे आम बेखौफ पुरूष समाज बेटी, स्त्री पर प्रहार कर रहा है और हम कानून की दुहाई दे साक्ष्य पर ही जोर देने में लग जाते हैं! एक वहशी दरिन्दे की शिकार लड़की किस मनोस्थिति से गुजरती है वह अकल्पनीय होती है।
                बेटी को कोख से लेकर पृथ्वी तक आने तक कई यम सक्रिय हो जाते है फिर चाहे डॉक्टर हो या लड़कियों की खरीद-फरोख्त करने वाले दलाल। ऐसी विषम परिस्थिति में आशा की एक किरण ‘‘शिवराज’’ में दिखती है जाने-अनजाने में उन्होंने इस मुद्दे को अपने हाथ में ले पुनीत कार्य किया है, इसकी शुरूआत उन्होंने अपने मुख्यमंत्री निवास से 1100 कन्याओं को पूज अपने मंत्रियों के कुनबे के साथ जनता को भी स्पष्ट संदेश दिया है।
                10-अक्टूबर को आदिशक्ति पीताम्बरा पीठ, दतिया शहर से बकायदा ‘‘बेटी बचाओ’’ जन जागृति अभियान की शुरूआत की निःसंदेह ‘‘शिव’’ की मंशा पवित्र है लेकिन डर है कहीं अफसरशाही इसे पलीता न लगा दे। ऐसा इसलिए भी जहन में उठ रहा है कि एक ओर जहां मुख्यमंत्री योजना का लोकार्पण कर रहे थे वहीं दूसरी ओर नौकरशाही ने मुख्यमंत्री के कार्यक्रम में ही सम्मलित एक बेटी की माँ को थप्पड़ मार दिया, जब वह अपनी 6 माह की लाडली लक्ष्मी को अपना दूध पिला रही थी। इस घिनौने कृत को मीडिया ने भी काफी जोर-शोर से उठाया था। उस अफसर का क्या हुआ ये अभी तक पता नहीं चल सका।


                यहां में शिव से एक बात कहना चाहूंगी कि अभी जो योजनाएं बनी है वह एक बेटी को ही लेकर है मेरा कहना है एक ही बेटी क्यों? बेटी-बेटी होती है इस में भेद न हो, इस पर राजनीति न हो। हकीकत तो यह है कि जिसकी एक बेटी है निःसन्देह वह नागरिक जागरूक है और इसका लालन-पालन भी वह अच्छी तरह से कर सकता है, लेकिन उनका क्या जो बेटे की चाह में चार-पांच बेटियों को इस धरा पर ला चुके हैं? हकीकत में सरकार को ऐसे लोगों की मदद प्राथमिकता से करनी होगी, साथ में यह ध्यान भी रखना होगा कि इसका पूरा-पूरा इंतजाम कड़ाई से भी हो। मुझे तो लगता है कि चालाक अफसरों ने यहां भी सरकार से लाभ लेने के लिये ‘‘एक बेटी’’ का ही प्रावधान नियमों में रखवाया है, इसकी भी जांच होना ही चाहिये आखिर जरूरतमंदों से हक छीनने का षड़यंत्र इन्होंने जो रचा है।
                लड़कों की तुलना में लड़कियां ज्यादा कुपोषित होती है, एक सरकारी आंकड़े के अनुसार कुपोषण के शिकार 25 लाख बच्चों में लगभग 50 प्रतिशत कुपोषण की शिकार बेटियां ही पाई गई, जबकि कुपोषण पर ही 100 करोड़ रूपये खर्च होेने के बाद भी 200 से अधिक बेटियांे की मौत हो चुकी है। चूूंकि लड़कियों को संतति देना होती है इसलिये ऐसे में सरकार को इन पर विशेष ध्यान देने की भी आवश्यकता है। इसमें लापरवाह अफसरों को सीधे नौकरी से बाहर बिठाने की भी व्यवस्था कड़ाई से करनी होगी क्योंकि बिना भय के प्रीति नहीं हो सकती। इस संबंध में डॉ. राम मनोहर लोहिया भी कहते हैं राजनीतिक सत्ता बदल जाने के बावजूद व्यवस्था में कोई बदलाव इसलिये नहीं आता क्योंकि नौकरशाही की सोच में लोकतंत्र के अनुरूप बदलाव नहीं हो पाता, लिहाजा़ सरकार की अच्छी-अच्छी योजनाओं को भी पलीता लग जाता है कहीं ये सत्य न हो इसे भी शिवराज को देखना होगा।
                भ्रूण हत्या को रोकने के लिये कहने को तो पी.एन.डी.टी. एवं अन्य भारी भरकम कानून है, फिर भी जघन्य अपराध का खेल उच्च वर्गों में डॉक्टरों की मदद से एवं ग्रामीण क्षेत्रों में हत्या कर किया जा रहा है।
                अब यदि शिवराज ने ठान लिया है कि बेटियों को बचाने के लिये यदि अफसरशाही को भी कसने के लिये यदि कोई अप्रिय कदम उठाना पड़े तो उठाना ही होगा, साथ ही कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे मसलन गर्भ में पल रही बेटियों की सुरक्षा, जन्म के पश्चात् शिशु-मृत्यु दर कम करना, बेटियों के कुपोषण पर विशेष ध्यान, बेटियों की उचित शिक्षा, रोजी रोटी की उचित व्यवस्था के लिये नई-नई योजनाओं को लाना होगा ताकि आत्म निर्भरता और भी बढ़ सके।
                शिव को यह भी देखना होगा कि अन्य योजनाओं की तरह ये भी कहीं सिर्फ एक सरकारी अभियान तक ही सीमित न रहे बल्कि इसे सामाजिक आन्दोलन में भी बदलने की आवश्यकता होगी तब कहीं जाकर ‘‘शिव’’ की मेहनत का फल अमृत के रूप में न केवल निकलेगा बल्कि भविष्य मंे लिखे जाने वाले इतिहास में भी स्वर्ण अक्षरों में ये अभियान दर्ज हो दमकता रहेगा।


(लेखिका सूचना मंत्र पत्रिका की संपादक हैं)
मो. 9425677352

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