( डॉ. शशि तिवारी )
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यह
एक कटु सत्य है कि छुरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर, हर हाल में
नुकसान खरबूजे का ही होता है अर्थात् हर उद्योगपति हमेशा से गरीबों का शोषण
करता आया है, नुकसान बेचारे गरीब का ही होता है। इससे
कोई भी फर्क नहीं पड़ता कि शोषण करने वाला देशी है, स्वदेशी है या विदेशी।
हर हाल में निशाने पर गरीब ही रहता है और रहेगा भी? और हो भी क्यों न? गरीब
की भूमिका हमारे यहां सिर्फ नेता चुनने तक ही सीमित होती ह,ै जबकि सरकारी
नीतियों को बदलने या अपने मनमाफिक बनवाने पर पूरा नियंत्रण बड़े-बड़े
पंूजीपतियों के ही हाथों में होता है और हमारे नेता इनकी चाकरी एवं इनके
हितों को साधने के लिए एक
पैर पर हमेशा खड़े ही रहते है जो इस लोकतंत्र के लिए देर-सबेर सबसे बड़ा
खतरा ही साबित होगा। आज एफ. डी. आई. को ले जो हो-हल्ला मचाया जा रहा है वह
सब भारत के ही पंूजीपतियों का गरीबों की आड़ ले प्रायोजित कार्यक्रम है।
हकीकत में वाल मार्ट जैसे ही स्टोर रिलायंस, भारती, स्पेसर, फ्यूचर, टाटा
का टेªड जैसे भारत में पहले से ही सफलतापूर्वक चल रहे है। हकीकत में इनको
विदेशी कंपनियों से ज्यादा
खतरा है, क्योंकि ये आर्थिक तौर पर काफी सुदृढ़ है। आज तक जो सीमित
पंूजीपति गरीबों का शोषण कर भरपूर मुनाफा जो कमा रहे थे उनकी इस कमाई में
अब बंटवारा कराने उनसे भी बड़ा पंूजीपति अब भारतीय बाजार में इन्हीं से
दो-दो हाथ करने के लिए आ जायेगा।
आज नेता जन मुद्दों पर कम खुद अपने मान अभिमान, राजनीतिक गठजोड़ के आधार पर सौदेबाजी ही ज्यादा करते नजर आते हैं जबकि होना ये चाहिए कि क्षेत्र की जनता के साथ मिल विचार-विमर्श कर नीतियों का समर्थन या विरोध करना चाहिए। हकीकत यह है कि निवेशकों को कुछ शर्तों के साथ भारत में व्यापार करने की अनुमति दी है, मसलन निवेशक को निवेश की आधी राशि बैंक एण्ड इन्फ्रास्टेªक्चर में लगानी होगी। रिटेल स्टोर के लिए उत्पाद के सामान की 30 फीसदी खरीददारी छोटे और मझोले उद्योगों से करनी होगी। निवेशक को कम से कम 100 मिलियन डालर की रकम का निवेश करना होगा, मल्टी ब्रांड रिटेल में निवेश करने वालों को राज्य सरकार से अलग से इजाजत लेने की जरूरत नहीं होगी।
इसी तरह सिंगल ब्रांड
रिटेल में विदेशी निवेश करने की छूट को 51 फीसदी से बढाकर सौ फीसदी तक कुछ
शर्तों मसलन उत्पाद के सामान की 30 फीसदी खरीददारी छोटे और मझोले
उद्योगोंसे करनी होगी, स्टोर में सामान के ब्रांड नेम अंतर्राष्ट्रीय ही
होंगे, निवेशक खुद मालिक होगा
आदि-आदि। चूंकि भारत एक अरब 25 करोड़ लोगों का बड़ा बाजार है इसीलिए सभी
विदेशी निवेशकों की नजर इस पर गढ़ी हुई है। निःसंदेह इसके प्रत्यक्ष निवेश
से कुछ फायदा भी होगा मसलन कीमतों में प्रतियोगिता का नया दौर शुरू होगा
जिससे अन्ततः फायदा उपभोक्ता को ही गुणवत्ता और कीमतों में मिलेगा, 50
प्रतिशत पद स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित रहेंगे, रोजगार बढ़ेगा, जो खुदरा
व्यापारी मनमाफिक
मुनाफाखोरी समय-समय पर करते रहते है उन पर भी लगाम कसेगी जो देर सबेर एक
अच्छा प्रयास साबित हो सकता है।
भारतीयों को ध्यान होगा केन्द्र में जब भाजपा थी तब प्रिन्ट मीडिया में विदेशी निवेश के लिए जब दरवाजे भारत में आने के लिए खोला था तब भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया मीडिया में व्यक्त की गई थी विरोध भी हुआ था लेकिन नतीजा आज सभी के सामने है कोई भी छोटा मीडिया नहीं मरा और न ही उजडा।
आज जब केन्द्र ने एफ.डी.आई. के माध्यम से भारत में विदेशी निवेशकों को आमंत्रित किया है तो फिर हल्ला क्यों? जबकि कुछ राज्य इसके समर्थन में है तो कुछ विरोध में? बस इसी को ले अब राजनीति चल निकली है। बाजार बन्द और खोलने की आंख मिचोली शुरू हो गई है। आज देश की संसद न चलने के पीछे भी कई अहम कारण है जिनमें प्रमुख जन प्रतिनिधियों के चलने वाले बड़े-बड़े उद्योग, धन्धे जिनमें इनके परिजनों की पूंजी का निवेश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से है। दूसरा जवाबदेहता में कमी, तीसरा राष्ट्रीयता के भाव में कमी, चौथा राजनीतिक प्रतिद्वंदता के चलते समस्याओं पर संसद का बहिष्कार कर, मनमानी चला, हल न करने की प्रवृत्ति, पांचवा देश कम निहितार्थ एवं पार्टी हितार्थ पर विशेष बल आदि।
ऐसे ढेरों अन्य कारण भी है कुल मिलाकर देश की संसद का न चलना भी इस
देश का दुर्भाग्य है?
संसद को हर हाल में सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी पक्ष एवं विपक्ष की
ही संयुक्त रूप से बनती है? यदि देश की संसद नहीं चलती है तो फिर इतनी
नैतिकता भी होनी चाहिए कि ‘‘काम नही दाम नहीं’’ की तर्ज पर सभी माननीय अपने
वेतन भत्तों में कटौती क्यों नही करवाते है? क्या यह देश एवं देशवासियों
के साथ धोखा नहीं है? आखिर हमारे जनप्रतिनिधि जनता के ही बीच अपनी छवि
धूमिल करने पर क्यों तुले
हुए है? आखिर देश को हम किधर ले जाना चाहते है। आज हर राजनीतिक पार्टी
अपने भाषणों में दूसरी पार्टी को लुटेरा कह रही है? जनता की अदालत में आने
को बैचेन है? ऐसी विषम परिस्थिति में अब जनता को ही असली मालिक बन दूध का
दूध पानी का पानी कर राजनीति में बढ़ती गंदगी को सफाई करने का दायित्व
निभाना ही चाहिए। जनता को अब गंभीर होना ही पड़ेगा, दिल, भावनाओं से ऊपर उठ,
पार्टी बाजी से ऊपर उठ, दिमाग
से निर्णय ले व्यक्ति आधारित, चरित्र आधारित, जनप्रतिनिधियों का चयन करना
होगा। चूंकि आने वाले भविष्य की राजनीति अब पार्टी आधारित शायद न बचे?
क्योंकि कोई भी पार्टी आज जनभावनाओं पर खरी नहीं उतर रही है। आवश्यकता पड़े
तो संविधान में भी संशेधन इस बाबत् करने की प्रक्रिया भी शुरू कर देना
चाहिये जिससे चुनाव समय सीमा 5 वर्ष से पहले किसी भी सूरत में न करवाना
पड़े।
(लेखिका ‘‘सूचना मंत्र’’ पत्रिका की संपादक हैं)
(लेखिका ‘‘सूचना मंत्र’’ पत्रिका की संपादक हैं)
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