Thursday, March 31, 2011

कलिनायक ने खोल दिया भास्कर का काला चिठ्ठा

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वहीं प्रथम और दूसरा अध्याय भी पाठकों को उपलब्ध कराया है अब इस अंक में आपको बीच का तीसरा अध्याय का शेष प्रस्तुत कर रहे है जो इस किताब का प्रकाशित अंश है......

कलिनायक किताब में प्रकाशित
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तीसरा अध्याय का शेष

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ग्वालियर का फर्जीवाड़ा
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शेयर घोटाला कर बहुमत हासिल किया
ह और यह थी रमेश की दूसरी शतरंजी चाल... बेटा आसमां पर, बाप जमीन पर:-
बाप को निकाला बाहर
  • द्वारका प्रसाद कपं नी के आजीवन प्र्रबंध निदेशक और जनरल बाडी मीटिंगंग के स्थायी चेयेरमैन थे कम्पनी के आटिर्कल आफॅ एसोसिएशन में द्वारका प्रसाद को कभी न हटने वाला यानी आजीवन मैनेजिंग डायरेक्टर और चेयरमैन घोषित किया गया था।
  • अति महत्वाकांक्षी रमेश अपने बाप, मॉं और बहनों का रत्तीभर भी हस्तक्षेप कम्पनी में नहीं चाहता था। इसलिए इतना सब कुछ कर रमेश शांत नहीं बैठा। उसकी आगे की चाल थी... अपने बाप द्वारका प्रसाद अग्रवाल को कंपनी से निकालकर बाहर करना। शायद औरंगजेब की कहानी उसने पढ़ रखी थी। दूध में गिरी मक्खी निकालना उसे आ गया था।
  • इसलिए पहले उसने अपने पिता द्वारका प्रसाद को कम्पनी के आजीवन '' लाइफटाइम'' मैनेजिंग डायरेक्टर और चेयरमैन के पद से हटा दिया। फिर अपनी छोटी मॉं, बहनों और अंत में चाचा विशम्भर व उसके बेटों को भी कम्पनी से चलता कर अपना उल्लू सीधा कर लिया।
आइये, अब देखें कि उन सबकी वाट लगी, तो लगी कैसे मीटिंग्स का हुआ फर्जीर्ववाड़ा, रमेश ने मैदान मारा कैैसे निकाला बाप को
  • रमेश ने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग किये बगैर ही एक बार नहीं, दो बार नहीं तीन बार नहीं फिर चार बार मीटिंग होने के फर्जी दस्तावेज तैयार किये
  • मीटिंगों के कोई नोटिस पिता, छोटी मांॅ, और बहनों को प्राप्त नहीं हुए। होते भी कैसे? कोई नोटिस भेजे ही नहीं, मीटिंग तो हुई ही नहीं।
  • रमेश ने कहा- लगातार तीन मीटिंगों में अनुपस्थित होकर उन्होंने कंपनी के नियमों को तोड़ा है।
  • फिर रमेश ने तीन बार मीटिंग में अनुपस्थित हानेे के आधार पर 3 अगस्त 1987 को अपने पिता द्वारका प्रसाद को मैनेजिगं डायरेक्टर के पद से और चार बार मीटिंग में अनुपस्थित होने के आधार पर अपनी बहन हेमलता को ज्वाइटं मैनेजिगं डायरेक्टर के पद से हटा दिया। दिनॉकं 9 जुलाई 1987 को अपनी ऑख्ंा की किरकिरी बनी सौतेली मॉं किशोरी देवी को भी अलग कर दिया। इस प्रकार बिना चक्कों पर दौड़ रहा रमेश की धांधली का रथ अपने ही पिता पर चढ़ बैठा।
  • ऐसा लगता है कि मानो दुुनिया का सबसे बड़ा अपराध तो मीटिगे में अनुपस्थित होना ही है। अर्ज किया है-
हुआ कंपनी में भारी उलटफेर,
बेटा बना शेेर औैर बाप हुआ ढेेर।
इस घटना से हमने सीखा कि हवस की भूख पूरी करने कि लिए खून के रिश्ते को भी हजम कर लो और डकार भी न लो। इससे मिला:-
सफलता का एक और.... कलियुगी फंडा
दुनिया में सबसे बड़ा रुपया है, इसलिए आपमें यह मूल्यांकन करने की क्षमता होनी चाहिए कि किसका रहना फायदेमंद है और किसका नहीं। यह पता चलते ही कि वह काम का आदमी नहीं रहा, तो जरूरत पड़े तो उसका भी गेम बजा दो। जैसे निकले काम, कर दो उसका काम तमाम। अत: स्वार्थ के चश्में से दुनिया को देखने की कला सीखो। अब लौकिक सफलता का रमेशी फंडा ये बनेगा कि-'' जिससे कोई फायदा नहीं, उससे बचकर रहो, चाहे वह तुम्हारा सगा बाप ही क्यों न हो।'' अपने पिता, माता और बहन को उखाड़ फेंकने के बाद फिर रमेश अब अपने मोहरों को जमाने में लग गया।
दुश्मनों को हटाओ, अपनों के लिए जगह बनाओ...यह थी रमेश की तीसरी शतरंजी चाल:-
रमेश ने की अपने आदमियों की ताजपोशी
  • रक्त संबंधियों को अपने दुश्मनों की तरह बाहर करने के बाद धृतराष्ट्र बन चुके रमेश ने अब अपना हाथ जगन्नाथ करते हुए अपने बच्चों को कम्पनी में सम्मिलित करने की योजना बनाई। अपने मातहतों को गद्दी पर बैठाने के लिए उनकी ताजपोशी के लिए ताना-बाना बुना। इसके तहत:-
  • 9 जूलाई 1987 को रमेश ने अपने लाड़ले सुधीर अग्र्रवाल को कम्पनी का अतिरिक्त ''एडीशनल'' डायरेक्टर बनाया।
  • अपने चलेे डी.एन. खन्ना को भी कम्पनी का अतिरिक्त डायरेक्टर बनाया। इस तरह पहली ही चाल ने रमेश को राजा बना दिया:-
रमेश बना सर्र्वेेसर्वा
उसने फर्जीवाड़ा कर बढ़े हुए शेयर अपने नाम पर कर अपना सिक्का जमा लिया था। रमेश के लिए 9 जुलाई, 1987 का दिन शायद स्वर्ग पाने जैसा मायने रखता है पहले शेयर हुएुए अपने नाम, फिर कंपनी बनी गुलाम। तब रमेश अपनी दसों उगंलियां घी में आरै सिर कड़ाही में रख कर गलगल दम्मेमार रहा था। ये था फर्जी चाल का असली कमाल। अपने आदमियों की ताजपोशी का शुरु हुआ सिलसिला अब खत्म हो चुका था।
दस्तखत संबंंधी अधिकार लिए
  • जुलाई 1987 को आयोजित फर्जी मीटिंग में रमेश ने सभी चेक, बिल, प्रमोशनरी नोट, डिमांड ड्राफ्ट आदि पर अपने हस्ताक्षर करने का अधिकार प्राप्त कर लिया।
  • लगे हाथ अपने पुत्र सुधीर और गिरीश अग्रवाल को चेक आदि पर हस्ताक्षर करने का अधिकार दिया। तब से रमेश पुत्र कागजों पर चिडिय़ा बनाने लगे। पहले कंपनी... फिर कुर्सी...फिर दस्तखत... सब कब्जे में... इस घटना से हमने सीखा:-
सफलता का एक और...कलियुगी फंडा
अगर द्वारका प्रसाद को रमेश के गुप्त इरादों की भनक, जरा भी पहले से लग गयी होती तो क्या रमेश इतना बड़ा काण्ड कर पाता? कभी नहीं। रमेश ने अपने पिता को जरा भी भान नहीं होने दिया कि वे अपने पुत्र को नहीं, बल्कि आस्तीन के सॉंप को दूध पिलाकर बड़ा कर रहे हैं। आस्तीन के सॉंप की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि जब तक वो डसता नहीं है, तब तक उसकी असलियत उजागर नहीं होती। एक पल को द्वारका ने झपकी क्या ली, रमेश ने शतरंज की गोटियों का स्थान ही बदल दिया। इससे लौकिक ''फरेबी'' सफलता का कलियुगी ''रमेशी'' फंडा ये हाथ आया कि, सफल होने के लिए-''अपने असली इरादे छुपाकर लेकिन नकली इरादे बताकर रखें रमेश ने अपने पिता की विश्वास रूपी छाती पर धोखे की लात से प्रहार किया था। धोखे से बचने के लिए एक मूल मंत्र यह है कि हम अगर किसी को धोखा देने का मौका ही नहीं देंगे तो वह हमें कैसे धोखा दे पाएगा?
इसलिए लौकिक सफलता के इस रमेशी फंडे की काट है:- ''धंधे मे, अपने बेटे तक पर भूलकर भी भरोसा न करें।।'' लगातार......
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