जस्टिस मार्कंडेय काटजू
ने जब से मीडियाकर्मियों की कमियां गिनाई हैं, देश में उनके प्रशंसकों की
बाढ़ आ गई है। अचानक वह उन सब लोगों के हीरे बन गए हैं जो मीडिया का सबसे
ज्यादा इस्तेमाल करते हैं और इसलिए इससे सबसे ज्यादा ऊबे हुए भी हैं। टीवी
न्यूज ज्यादा देखने वाले लोग, अखबार ज्यादा पढ़ने वाले लोग ही मीडिया के
सबसे बड़े आलोचक हैं। जाहिर है, जो चैनल बदल-बदल कर खबरें देखते हैं और जो
एक से ज्यादा अखबार पढ़ते हैं, उन्हें ही इस बात का ज्यादा पता होता है कि
किस अखबार या चैनल ने खबर को किस अंदाज में पेश किया। इस आधार पर वे इस
बारे में भी राय बनाने की स्थिति में होते हैं कि खास अंदाज में खबरें पेश
करने के पीछे खास चैनल या अखबार का क्या हित हो सकता है। जाहिर है, ऐसे
पाठक-दर्शक ही मीडिया के बारे में सही या गलत या आधा सही-आधा गलत जैसी भी
कहें, पर राय रखते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो यह साफ है कि मीडिया का जो सबसे बड़ा आलोचक वर्ग है, उसे ही मीडिया का सबसे ज्यादा फायदा भी हो रहा है। आखिर, राजनीति, सरकार, प्रशासन, व्यापार, खेल, सिनेमा, करप्शन, आंदोलन - इन सबसे जुड़ी हकीकत लोगों तक पहुंच तो रही है। यहां तक कि खबरें पहुंचाने वालों की हकीकत भी पहुंच रही है (तभी तो वे मीडिया का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं)।
जस्टिस काटजू चाहे न मानें, उनके नए बने फैन भी न स्वीकार करें, पर यह भारतीय मीडिया की नाकामी नहीं बल्कि उसकी कामयाबी का सबूत है। कुछ कार्यों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि करने वाले को तारीफ मुश्किल से मिलती है। और, निंदा तो जैसे उनका इंतजार ही कर रही होती है। हमारे शहर के सफाईकर्मी कुछ काम भी करते हैं, इसका अंदाजा हमें उसी दिन मिलता है जब वे हड़ताल पर जाते हैं। कुछ ऐसा ही हाल मीडियाकर्मियों का भी है। हमें उनकी अहमियत तब पता चलती है जब हम उनकी सेवाओं से दूर हो जाते हैं। आप तीन-चार दिन के लिए भी कहीं ऐसी जगह चले जाते हैं या किसी ऐसे काम में फंस जाते हैं कि मीडिया की पहुंच से दूर रहें तो आपको अंदाजा होता है कि पूरी दुनिया से कटे रहना कैसा होता है। इस बीच क्या कुछ घट गया, कुछ खबर ही नहीं होती।
एक राष्ट के रूप में हमने आपातकाल के दौरान सेंसरशिप का स्वाद चखा था और ऐसा सबक सीखा कि अब कोई सेंसरशिप की बात भी नहीं करता। मगर, इस बीच एक ऐसी पीढ़ी आई है जिसने आपातकाल के बारे में थोड़ा-बहुत सुना भर है। 24 घंटे के न्यूज चैनलों के अलावा फेसबुक और ट्विटर तक -उसके सामने मीडिया के नए-नए रूप तो हैं, अभिव्यक्ति की असीम लगने वाली आजादी भी है, उसके दुष्प्रभाव भी है, मगर इन सबका अभाव कैसा होता है या कैसा हो सकता है, इसका कोई अनुभव उसके सामने नहीं है। न ही, इसकी कोई संभावना उसे दिख रही है। लिहाजा, वह मीडिया की खामियों से त्रस्त है और हर हाल में बस उसी से निजात पाना चाहती है। जस्टिस काटजू की बातें उसे मरहम प्रतीत होती हैं।
मगर, यह याद रखना जरूरी है कि जैसे हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, वैसे ही हर कड़वी बात सौ फीसदी खरी नहीं होती। जस्टिस काटजू कभी सुपीम कोर्ट के जज थे, आज वह प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन हैं। जिस शख्स को मीडिया का फ्रेंड, फिलॉसफर ऐंड गाइड बनना है, वह मीडिया को डंडे से हांकना चाहता है। जस्टिस काटजू बाकायदा एलान कर चुके हैं कि डंडा तो उन्हें चाहिए, वह उसे अपने पास रखना चाहते हैं। दयापूर्वक वह कहते हैं कि इसका इस्तेमाल वह पांच फीसदी के खिलाफ ही करेंगे।
और क्यों भला? इसलिए क्योंकि बकौल जस्टिस काटजू मीडियाकर्मी पढ़े-लिखे नहीं हैं। उन्हें दर्शन का ज्ञान है, न साहित्य का, न राजनीतिक विचारधाराओं का। उनके मुताबिक मीडिया को मुद्दे भी नहीं पता। वह देश की गंभीर समस्याओं पर बात करने के बदले चमक-दमक और सिलेब्रिटीज के नाज-नखरों की बातें ज्यादा करता है।
ज्यादा समय नहीं हुए जब इसी मीडिया ने नाज-नखरों की चिंता छोड़ करप्शन विरोधी आंदोलन को अपना पूरा समय अर्पित कर दिया था। तब सरकार की भी नींद हराम हो गई थी। बहरहाल, जस्टिस काटजू की आलोचना में छिपी सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि मीडिया को अपनी कमियां दूर करनी होंगी। लेकिन, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह काम जस्टिस काटजू के डंडे के जरिए नहीं हो सकता। अगर मीडिया को डंडे से ठीक करने की कोशिश की गई और मीडिया ने इसे स्वीकार कर लिया तो फिर वह मीडिया रह ही नहीं जाएगा जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद आज भी मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे की रीढ़ बना हुआ है।
दूसरी बात यह कि आखिर जस्टिस काटजू को किस लिहाज से मीडिया से ऊपर माना जाए? वह मीडिया पर अज्ञानता का आरोप लगाते हैं, लेकिन उनके उस ज्ञान पर ही कैसे भरोसा किया जाए जिसने उन्हें उस विनम्रता तक से वंचित कर दिया जो ज्ञान की पहली विशेषता मानी गई है? मीडियाकर्मी तो मान लिया अज्ञानी हैं, पर ज्ञानी जजों का ही व्यवहार कितना आदर्श रहा है यह बात सुप्रीम कोर्ट की ही एक रिटायर्ड जज (जस्टिस रूमा पाल) हमें पिछले सप्ताह (तारकुंडे मेमोरियल लेक्चर में) बता चुकी हैं।
सौ बात की एक बात यह है कि जैसे जूडिशरी की गड़बड़ियों का इलाज यह नहीं है कि उसे (इग्जेक्युटिव) सरकार के अधीन कर दिया जाए वैसे ही मीडिया की गड़बडि़यों का इलाज यह नहीं है कि उसे किसी जस्टिस काटजू के डंडे से हंकने के लिए मजबूर किया जाए, भले वह जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का अध्यक्ष ही क्यों न हो। हां, यह सवाल जरूर है कि मीडिया की अंतर्निहित विशेषताओं से इस कदर अनजान और मीडिया के स्वाभिमान के प्रति इस हद तक संवेदनहीन किसी शख्स को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जैसे पद पर बने रहना चाहिए या नहीं। चाहे वह शख्स जस्टिस काटजू जैसा ज्ञानी ही क्यों न हो।
प्रणव प्रियदर्शी
दूसरे शब्दों में कहें तो यह साफ है कि मीडिया का जो सबसे बड़ा आलोचक वर्ग है, उसे ही मीडिया का सबसे ज्यादा फायदा भी हो रहा है। आखिर, राजनीति, सरकार, प्रशासन, व्यापार, खेल, सिनेमा, करप्शन, आंदोलन - इन सबसे जुड़ी हकीकत लोगों तक पहुंच तो रही है। यहां तक कि खबरें पहुंचाने वालों की हकीकत भी पहुंच रही है (तभी तो वे मीडिया का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं)।
जस्टिस काटजू चाहे न मानें, उनके नए बने फैन भी न स्वीकार करें, पर यह भारतीय मीडिया की नाकामी नहीं बल्कि उसकी कामयाबी का सबूत है। कुछ कार्यों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि करने वाले को तारीफ मुश्किल से मिलती है। और, निंदा तो जैसे उनका इंतजार ही कर रही होती है। हमारे शहर के सफाईकर्मी कुछ काम भी करते हैं, इसका अंदाजा हमें उसी दिन मिलता है जब वे हड़ताल पर जाते हैं। कुछ ऐसा ही हाल मीडियाकर्मियों का भी है। हमें उनकी अहमियत तब पता चलती है जब हम उनकी सेवाओं से दूर हो जाते हैं। आप तीन-चार दिन के लिए भी कहीं ऐसी जगह चले जाते हैं या किसी ऐसे काम में फंस जाते हैं कि मीडिया की पहुंच से दूर रहें तो आपको अंदाजा होता है कि पूरी दुनिया से कटे रहना कैसा होता है। इस बीच क्या कुछ घट गया, कुछ खबर ही नहीं होती।
एक राष्ट के रूप में हमने आपातकाल के दौरान सेंसरशिप का स्वाद चखा था और ऐसा सबक सीखा कि अब कोई सेंसरशिप की बात भी नहीं करता। मगर, इस बीच एक ऐसी पीढ़ी आई है जिसने आपातकाल के बारे में थोड़ा-बहुत सुना भर है। 24 घंटे के न्यूज चैनलों के अलावा फेसबुक और ट्विटर तक -उसके सामने मीडिया के नए-नए रूप तो हैं, अभिव्यक्ति की असीम लगने वाली आजादी भी है, उसके दुष्प्रभाव भी है, मगर इन सबका अभाव कैसा होता है या कैसा हो सकता है, इसका कोई अनुभव उसके सामने नहीं है। न ही, इसकी कोई संभावना उसे दिख रही है। लिहाजा, वह मीडिया की खामियों से त्रस्त है और हर हाल में बस उसी से निजात पाना चाहती है। जस्टिस काटजू की बातें उसे मरहम प्रतीत होती हैं।
मगर, यह याद रखना जरूरी है कि जैसे हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, वैसे ही हर कड़वी बात सौ फीसदी खरी नहीं होती। जस्टिस काटजू कभी सुपीम कोर्ट के जज थे, आज वह प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन हैं। जिस शख्स को मीडिया का फ्रेंड, फिलॉसफर ऐंड गाइड बनना है, वह मीडिया को डंडे से हांकना चाहता है। जस्टिस काटजू बाकायदा एलान कर चुके हैं कि डंडा तो उन्हें चाहिए, वह उसे अपने पास रखना चाहते हैं। दयापूर्वक वह कहते हैं कि इसका इस्तेमाल वह पांच फीसदी के खिलाफ ही करेंगे।
और क्यों भला? इसलिए क्योंकि बकौल जस्टिस काटजू मीडियाकर्मी पढ़े-लिखे नहीं हैं। उन्हें दर्शन का ज्ञान है, न साहित्य का, न राजनीतिक विचारधाराओं का। उनके मुताबिक मीडिया को मुद्दे भी नहीं पता। वह देश की गंभीर समस्याओं पर बात करने के बदले चमक-दमक और सिलेब्रिटीज के नाज-नखरों की बातें ज्यादा करता है।
ज्यादा समय नहीं हुए जब इसी मीडिया ने नाज-नखरों की चिंता छोड़ करप्शन विरोधी आंदोलन को अपना पूरा समय अर्पित कर दिया था। तब सरकार की भी नींद हराम हो गई थी। बहरहाल, जस्टिस काटजू की आलोचना में छिपी सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि मीडिया को अपनी कमियां दूर करनी होंगी। लेकिन, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह काम जस्टिस काटजू के डंडे के जरिए नहीं हो सकता। अगर मीडिया को डंडे से ठीक करने की कोशिश की गई और मीडिया ने इसे स्वीकार कर लिया तो फिर वह मीडिया रह ही नहीं जाएगा जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद आज भी मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे की रीढ़ बना हुआ है।
दूसरी बात यह कि आखिर जस्टिस काटजू को किस लिहाज से मीडिया से ऊपर माना जाए? वह मीडिया पर अज्ञानता का आरोप लगाते हैं, लेकिन उनके उस ज्ञान पर ही कैसे भरोसा किया जाए जिसने उन्हें उस विनम्रता तक से वंचित कर दिया जो ज्ञान की पहली विशेषता मानी गई है? मीडियाकर्मी तो मान लिया अज्ञानी हैं, पर ज्ञानी जजों का ही व्यवहार कितना आदर्श रहा है यह बात सुप्रीम कोर्ट की ही एक रिटायर्ड जज (जस्टिस रूमा पाल) हमें पिछले सप्ताह (तारकुंडे मेमोरियल लेक्चर में) बता चुकी हैं।
सौ बात की एक बात यह है कि जैसे जूडिशरी की गड़बड़ियों का इलाज यह नहीं है कि उसे (इग्जेक्युटिव) सरकार के अधीन कर दिया जाए वैसे ही मीडिया की गड़बडि़यों का इलाज यह नहीं है कि उसे किसी जस्टिस काटजू के डंडे से हंकने के लिए मजबूर किया जाए, भले वह जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का अध्यक्ष ही क्यों न हो। हां, यह सवाल जरूर है कि मीडिया की अंतर्निहित विशेषताओं से इस कदर अनजान और मीडिया के स्वाभिमान के प्रति इस हद तक संवेदनहीन किसी शख्स को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जैसे पद पर बने रहना चाहिए या नहीं। चाहे वह शख्स जस्टिस काटजू जैसा ज्ञानी ही क्यों न हो।
प्रणव प्रियदर्शी
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