Written by बीपी गौतम
धरती पर रहने वाला हर इंसान किसी न किसी धर्म से जुड़ा अवश्य है। प्रत्येक धर्म घर-परिवार ही नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मंड के प्रति दायित्वों का बोध कराता है, इसलिए शिशु काल से ही इंसान को धर्म के बारे में सिखाना-बताना आवश्यक भी है। प्रत्येक इंसान धर्म के बारे में परिवार में देख-सुन कर अधकचरा ज्ञान अर्जित कर ही लेता है, उतने ही ज्ञान से धर्म के प्रति प्रत्येक इंसान के रोम-रोम में आस्था-श्रद्धा रच-बस जाती है। यही कारण है कि इंसान संवैधानिक नियमों को कई बार आसानी से नकार देता है, पर धार्मिक नियमों को नकारने से पहले हजार बार सोचता है।
शिशु काल से ही इंसान के मन में लोक-परलोक सुधारने की भावना बैठ चुकी होती है, इसलिए चोर से लेकर कसाई तक सभी परलोक सुधारने की दिशा में सजग अवश्य रहते हैं। धर्म की सही जानकारी के अभाव में लोगों की उसी सजगता का निर्मल बाबा जैसे धूर्त लोग आज दुरुपयोग करते दिखाई दे रहे हैं। प्राचीन काल में दुरुपयोग करने की संभावनायें इसलिए कम रहती थीं कि शिक्षा के साथ वेद-शास्त्रों का भी नियमानुसार गहन अध्ययन कराया जाता था, उस अध्ययन के कारण ही अधिकांश नागरिक आदर्श थे, पर अब डिग्री के लिए शिक्षा दी जा रही है और उसी बदली शिक्षा पद्धति के चलते लोगों को धर्म की सही जानकारी नहीं हो पा रही है, ऐसे में समूचे बुद्धिजीवी वर्ग के साथ मीडिया कर्मियों की भूमिका और भी बढ़ जाती है।
निर्मल बाबा जैसे धूर्त इस्लाम के नाम पर ज़ेहाद कराने वाले लोगों से भी बड़े अपराधी कहे जा सकते हैं, क्योंकि ज़ेहाद के नाम पर बलि लेने और देने को प्रेरित करने वाले लोग धर्म का खास नुकसान नहीं कर पा रहे हैं, वह धर्म के प्रति लोगों को और कट्टर ही बना रहे हैं, वह धर्म के प्रति लोगों का विश्वास और अधिक मजबूत ही कर रहे हैं, जिससे धर्म की एक दिन सही जानकारी होने पर ऐसे भटके लोग ज़ेहाद से स्वत: ही तौबा कर लेंगे और ऩेक इंसान बन कर दुनिया का भला करने लगेंगे, लेकिन निर्मल बाबा जैसे धूर्त धंधेबाजों के कुकृत्यों के कारण लोगों का धर्म से विश्वास ही उठता जा रहा है। इंसान का धर्म से विश्वास पूरी तरह उठ गया, तो यह समाज रहने लायक ही नहीं बचेगा।
हालांकि धार्मिक विश्वास कम होने के कारण ही रिश्ते आज भी कलंकित होने लगे हैं। रिश्तों का मूल्य लगातार घट रहा है। इंसान जानवरों की तरह सिर्फ स्वयं के लिए ही जीने लगा है, लेकिन सब कुछ सही होने की आशा अभी शेष है, उस आशा को निर्मल बाबा जैसे धूर्त लगातार धुंधली कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में समूचे बुद्धिजीवी वर्ग व मीडिया को खुल कर सामने आना चाहिए और धर्म के नाम पर धंधा करने वालों की असलियत समाज के सामने लानी ही चाहिए, वरना आने वाली पीढिय़ों में यह भी सोच नहीं बचेगी कि यह मां है और यह बहन। धर्म के नाम पर धंधा करने वाले निर्मल बाबा का ही नहीं, बल्कि हर उस आदमी का विरोध होना चाहिए, जो धर्म का सहारा लेकर किसी भी तरह का स्वार्थ पूरा करने का सपना संजोय हुए है। राजनीति में भी धर्म का समावेश हो चुका है।
ईश्वर के प्रति जो आस्था-श्रद्धा थी, ठीक उसी आस्था-श्रद्धा के साथ जनता ने भाजपा को सत्ता तक पहुंचाया था, लेकिन धर्म के सहारे राजसुख भोगने वाले भाजपाई जब जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे, तो उस भाजपा ने अन्य अच्छे लोगों के प्रति भी विश्वास कम कर दिया। राजनीति से अलग मंदिर आंदोलन चलाया गया होता, तो आज लोगों की भावना कम होने की बजाये सातवें आसमान पर होती। इसी तरह अब गेरुआ वस्त्रधारी कुछ राजनेता गंगा व गाय को लेकर पुन: धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग करने का सपना देख रहे हैं। बात सिर्फ हिंदुओं की ही नहीं है। इस्लाम के अनुयाइयों की नज़र में जिस शाही इमाम को सबसे ऊपर बैठाया जाता है, वह इमाम अपने परिजनों व रिश्तदारों के लिए राजनीति में सौदेबाजी करता घूमता दिख रहा है। बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया को ऐसे लोगों के प्रति भी जनता को सजग करते रहना चाहिए। सबसे महत्व पूर्ण बात यह है कि धर्म के प्रति विश्वास कम होना किसी एक समुदाय या एक जाति विशेष का ही नुकसान नहीं है, यह समूचे समाज के साथ समूची दुनिया का नुकसान है, क्योंकि अधार्मिक इंसान नहीं, बल्कि जानवर होते हैं और भावना एवं विचार विहीन जानवर विकास की बजाये विनाश करते हैं।
धरती पर रहने वाला हर इंसान किसी न किसी धर्म से जुड़ा अवश्य है। प्रत्येक धर्म घर-परिवार ही नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मंड के प्रति दायित्वों का बोध कराता है, इसलिए शिशु काल से ही इंसान को धर्म के बारे में सिखाना-बताना आवश्यक भी है। प्रत्येक इंसान धर्म के बारे में परिवार में देख-सुन कर अधकचरा ज्ञान अर्जित कर ही लेता है, उतने ही ज्ञान से धर्म के प्रति प्रत्येक इंसान के रोम-रोम में आस्था-श्रद्धा रच-बस जाती है। यही कारण है कि इंसान संवैधानिक नियमों को कई बार आसानी से नकार देता है, पर धार्मिक नियमों को नकारने से पहले हजार बार सोचता है।
शिशु काल से ही इंसान के मन में लोक-परलोक सुधारने की भावना बैठ चुकी होती है, इसलिए चोर से लेकर कसाई तक सभी परलोक सुधारने की दिशा में सजग अवश्य रहते हैं। धर्म की सही जानकारी के अभाव में लोगों की उसी सजगता का निर्मल बाबा जैसे धूर्त लोग आज दुरुपयोग करते दिखाई दे रहे हैं। प्राचीन काल में दुरुपयोग करने की संभावनायें इसलिए कम रहती थीं कि शिक्षा के साथ वेद-शास्त्रों का भी नियमानुसार गहन अध्ययन कराया जाता था, उस अध्ययन के कारण ही अधिकांश नागरिक आदर्श थे, पर अब डिग्री के लिए शिक्षा दी जा रही है और उसी बदली शिक्षा पद्धति के चलते लोगों को धर्म की सही जानकारी नहीं हो पा रही है, ऐसे में समूचे बुद्धिजीवी वर्ग के साथ मीडिया कर्मियों की भूमिका और भी बढ़ जाती है।
निर्मल बाबा जैसे धूर्त इस्लाम के नाम पर ज़ेहाद कराने वाले लोगों से भी बड़े अपराधी कहे जा सकते हैं, क्योंकि ज़ेहाद के नाम पर बलि लेने और देने को प्रेरित करने वाले लोग धर्म का खास नुकसान नहीं कर पा रहे हैं, वह धर्म के प्रति लोगों को और कट्टर ही बना रहे हैं, वह धर्म के प्रति लोगों का विश्वास और अधिक मजबूत ही कर रहे हैं, जिससे धर्म की एक दिन सही जानकारी होने पर ऐसे भटके लोग ज़ेहाद से स्वत: ही तौबा कर लेंगे और ऩेक इंसान बन कर दुनिया का भला करने लगेंगे, लेकिन निर्मल बाबा जैसे धूर्त धंधेबाजों के कुकृत्यों के कारण लोगों का धर्म से विश्वास ही उठता जा रहा है। इंसान का धर्म से विश्वास पूरी तरह उठ गया, तो यह समाज रहने लायक ही नहीं बचेगा।
हालांकि धार्मिक विश्वास कम होने के कारण ही रिश्ते आज भी कलंकित होने लगे हैं। रिश्तों का मूल्य लगातार घट रहा है। इंसान जानवरों की तरह सिर्फ स्वयं के लिए ही जीने लगा है, लेकिन सब कुछ सही होने की आशा अभी शेष है, उस आशा को निर्मल बाबा जैसे धूर्त लगातार धुंधली कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में समूचे बुद्धिजीवी वर्ग व मीडिया को खुल कर सामने आना चाहिए और धर्म के नाम पर धंधा करने वालों की असलियत समाज के सामने लानी ही चाहिए, वरना आने वाली पीढिय़ों में यह भी सोच नहीं बचेगी कि यह मां है और यह बहन। धर्म के नाम पर धंधा करने वाले निर्मल बाबा का ही नहीं, बल्कि हर उस आदमी का विरोध होना चाहिए, जो धर्म का सहारा लेकर किसी भी तरह का स्वार्थ पूरा करने का सपना संजोय हुए है। राजनीति में भी धर्म का समावेश हो चुका है।
ईश्वर के प्रति जो आस्था-श्रद्धा थी, ठीक उसी आस्था-श्रद्धा के साथ जनता ने भाजपा को सत्ता तक पहुंचाया था, लेकिन धर्म के सहारे राजसुख भोगने वाले भाजपाई जब जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे, तो उस भाजपा ने अन्य अच्छे लोगों के प्रति भी विश्वास कम कर दिया। राजनीति से अलग मंदिर आंदोलन चलाया गया होता, तो आज लोगों की भावना कम होने की बजाये सातवें आसमान पर होती। इसी तरह अब गेरुआ वस्त्रधारी कुछ राजनेता गंगा व गाय को लेकर पुन: धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग करने का सपना देख रहे हैं। बात सिर्फ हिंदुओं की ही नहीं है। इस्लाम के अनुयाइयों की नज़र में जिस शाही इमाम को सबसे ऊपर बैठाया जाता है, वह इमाम अपने परिजनों व रिश्तदारों के लिए राजनीति में सौदेबाजी करता घूमता दिख रहा है। बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया को ऐसे लोगों के प्रति भी जनता को सजग करते रहना चाहिए। सबसे महत्व पूर्ण बात यह है कि धर्म के प्रति विश्वास कम होना किसी एक समुदाय या एक जाति विशेष का ही नुकसान नहीं है, यह समूचे समाज के साथ समूची दुनिया का नुकसान है, क्योंकि अधार्मिक इंसान नहीं, बल्कि जानवर होते हैं और भावना एवं विचार विहीन जानवर विकास की बजाये विनाश करते हैं।
लेखक बीबी गौतम स्वतंत्र पत्रकार, ब्लॉगर तथा विश्लेषक हैं.
No comments:
Post a Comment