निर्मल बाबा, मीडिया और बाज़ार, तीनों ही हैं इस लूट के ज़िम्मेदार
Saturday, 07 April 2012
-मुकेश कुमार-
ये बहुत दुखद है कि एक ओर जहाँ कोशिशें हो रही हैं कि न्यूज़ चैनलों के कंटेंट को कैसे ज़्यादा से ज़्यादा विश्वसनीय बनाया जाए और पत्रकारिता के उच्चतर मानदंडों से उसे जोड़ा जाए वहीं थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा जैसे पेड प्रोग्राम ने प्रदूषण को एकदम से बढ़ा दिया है। ये उन लोगों के लिए निश्चय ही चिंता का विषय होना चाहिए जो मानते हैं कि न्यूज़ चैनलों का काम केवल धंधेबाज़ी नहीं है बल्कि एक सामाजिक ज़िम्मेदारी से भी वो बँधे हुए है। उन्हें इस बात का खयाल तो रखना ही होगा कि वे जो कुछ दिखा रहे हैं उसका समाज और देश पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अगर वे ऐसा नहीं करते तो पत्रकारिता को कलंकित कर रहे हैं।
ये कोई नई प्रवृत्ति नहीं है। हर दो-चार साल में कोई न कोई बाबा अवतरित होता है और इसी तरह लोगों को गुमराह करता हुआ लोकप्रियता और धन बटोरता है। मीडिया इसके लिए एक बहुत ही आसान उपकरण बनकर रह गया है। इन बाबाओं के पास अथाह पैसा है और न्यूज़ चैनल बिकने के लिए तैयार बैठे हैं, इसलिए उनका काम बहुत आसान हो जाता है। जब एक साथ कई चैनलों में बाबा दिखने लगते हैं तो एक किस्म का मास हिस्टीरिया पैदा होने लगता है और पूरे समाज को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। वही हो रहा है। ध्यान रहे चैनल इन पेड प्रोग्राम पर विज्ञापन भी नहीं लिख रहे हैं।
अब आलम ये हो गया है कि देश भर के न्यूज़ चैनलों में सर्वाधिक दस लोकप्रिय कार्यक्रमों में से छह निर्मल बाबा के हैं और उनका न्यूज़ से कोई लेना देना नहीं है। कई चैनलों की टीआरपी निर्मल बाबा की कृपा से उछाल पर है। न्यूज़ का कंटेंट तीसरे दर्ज़े का है मगर उनके पास निर्मल बाबा हैं और बस वही हैं। अगर निर्मल बाबा की टीआरपी को हटाकर देखें तो शायद वे कंगाल हो जाएंगे। हाँ, नुकसान हो रहा है तो उनका जो खुद को न्यूज़ चैनल बनाए रखने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
निर्मल बाबा के कार्यक्रमों से टीआरपी और धन कमाने वाले चैनलों पर कुछ कहने से पहले इस पर विचार करना ज़रूरी है कि निर्मल बाबा क्या हैं और अपने कार्यक्रमों के ज़रिए किसका भला या बुरा कर रहे हैं। ऐसा इसलिए कि जो चैनल इस पेड कार्यक्रम के ज़रिए लाभ कमा रहे हैं उन्होंने ज़रूर अपने फैसले के पक्ष में तर्क तैयार कर रखे होंगे। उनका पहला तर्क तो हमेशा की तरह यही होगा कि ये आस्था का मामला है, इसमें अंध विश्वास जैसा कुछ नहीं है। यानी आस्था की आड़ लेकर वे जिस तरह अंध विश्वास के दूसरे कार्यक्रम चला रहे हैं वैसे ही निर्मल बाबा को दिखाना भी उनकी नज़र में सही है।
उनका दूसरा तर्क दर्शकों की पसंद का होगा। इसके मुताबिक अगर दर्शक देखना चाहते हैं तो हम क्यों न दिखाएं। ये एक तरह की ढिठाई है, मगर बहुत सारे संपादकों ने दर्शकों की पसंद को भी अपनी ढाल बना रखा है। उनका तीसरा तर्क होगा कि जब दूसरे चैनल इस तरह का कंटेंट दिखाकर दर्शकों का हरण करने लगते हैं तो हमें अपने बचाव में इसी तरह के उपाय करने पड़ते हैं। यानी अगर सब प्रतिज्ञा कर लें कि वे घटिया चीज़ें नहीं दिखाएंगे तो हम भी नहीं दिखाएंगे। उनका अंतिम तर्क यही है कि उन्हें भी सरवाइव करना है। अगर रेवेन्यू और टीआरपी साथ-साथ मिलती है तो हमें बाज़ार के दबाव में इसे स्वीकार करना ही पड़ता है और हम यही कर रहे हैं। अगर हम ये नहीं करेंगे तो चैनल चलेगा कैसे (जैसे चैनल चलाकर वे देश पर एहसान कर रहे हों)।
अब अगर इन दलीलों को रोशनी में आपने निर्मल बाबा के कार्यक्रमों को देखने की कोशिश की तो भ्रम में पड़ जाएंगे कि क्या कहें, किसे दोष दें। बाबा को, मीडिया को या बाज़ार को या फिर तीनों सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार हैं। बाबा खुले आम धोखाधड़ी कर रहे हैं मगर उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है, न प्रशासन, न पुलिस न कानून। कुछ चैनल मौके को भुनाने में लगे हुए हैं और बाज़ार तो खैर ऐसा करने के लिए उन पर दबाव भी बना रहा है और उन्हें प्रेरित भी कर रहा है। सबकी आपस में साठ गाँठ है और इसके विरूद्ध आवाज़ चाहे जितनी उठाई जाए होता कुछ नहीं। पिछले एक दशक में चैनलों को विभिन्न मंचों पर जितना कोसा गया है उसके बाद तो उनका विवेक जाग ही जाना चाहिए था और चैनलों को सुधर ही जाना चाहिए था मगर ऐसा हुआ नहीं है।
इसका मतलब है कि बीमारी गंभीर है और इलाज कठिन होगा और लंबा भी चलेगा। ये भी तय है कि इसे आत्मनियमन और संपादकों के विवेक भर पर नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि ये दोनों ही चीज़ें लगभग काम नहीं कर रही हैं। ऐसे में जो लोग निर्मल बाबा के विरोध में लामबंद हो रहे हैं उन्हें लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहना चाहिए।
(मुकेश कुमार जाने-माने पत्रकार हैं और न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल के एडीटर इन चीफ और सीईओ हैं।)
Saturday, 07 April 2012
-मुकेश कुमार-
ये बहुत दुखद है कि एक ओर जहाँ कोशिशें हो रही हैं कि न्यूज़ चैनलों के कंटेंट को कैसे ज़्यादा से ज़्यादा विश्वसनीय बनाया जाए और पत्रकारिता के उच्चतर मानदंडों से उसे जोड़ा जाए वहीं थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा जैसे पेड प्रोग्राम ने प्रदूषण को एकदम से बढ़ा दिया है। ये उन लोगों के लिए निश्चय ही चिंता का विषय होना चाहिए जो मानते हैं कि न्यूज़ चैनलों का काम केवल धंधेबाज़ी नहीं है बल्कि एक सामाजिक ज़िम्मेदारी से भी वो बँधे हुए है। उन्हें इस बात का खयाल तो रखना ही होगा कि वे जो कुछ दिखा रहे हैं उसका समाज और देश पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अगर वे ऐसा नहीं करते तो पत्रकारिता को कलंकित कर रहे हैं।
ये कोई नई प्रवृत्ति नहीं है। हर दो-चार साल में कोई न कोई बाबा अवतरित होता है और इसी तरह लोगों को गुमराह करता हुआ लोकप्रियता और धन बटोरता है। मीडिया इसके लिए एक बहुत ही आसान उपकरण बनकर रह गया है। इन बाबाओं के पास अथाह पैसा है और न्यूज़ चैनल बिकने के लिए तैयार बैठे हैं, इसलिए उनका काम बहुत आसान हो जाता है। जब एक साथ कई चैनलों में बाबा दिखने लगते हैं तो एक किस्म का मास हिस्टीरिया पैदा होने लगता है और पूरे समाज को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। वही हो रहा है। ध्यान रहे चैनल इन पेड प्रोग्राम पर विज्ञापन भी नहीं लिख रहे हैं।
अब आलम ये हो गया है कि देश भर के न्यूज़ चैनलों में सर्वाधिक दस लोकप्रिय कार्यक्रमों में से छह निर्मल बाबा के हैं और उनका न्यूज़ से कोई लेना देना नहीं है। कई चैनलों की टीआरपी निर्मल बाबा की कृपा से उछाल पर है। न्यूज़ का कंटेंट तीसरे दर्ज़े का है मगर उनके पास निर्मल बाबा हैं और बस वही हैं। अगर निर्मल बाबा की टीआरपी को हटाकर देखें तो शायद वे कंगाल हो जाएंगे। हाँ, नुकसान हो रहा है तो उनका जो खुद को न्यूज़ चैनल बनाए रखने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
निर्मल बाबा के कार्यक्रमों से टीआरपी और धन कमाने वाले चैनलों पर कुछ कहने से पहले इस पर विचार करना ज़रूरी है कि निर्मल बाबा क्या हैं और अपने कार्यक्रमों के ज़रिए किसका भला या बुरा कर रहे हैं। ऐसा इसलिए कि जो चैनल इस पेड कार्यक्रम के ज़रिए लाभ कमा रहे हैं उन्होंने ज़रूर अपने फैसले के पक्ष में तर्क तैयार कर रखे होंगे। उनका पहला तर्क तो हमेशा की तरह यही होगा कि ये आस्था का मामला है, इसमें अंध विश्वास जैसा कुछ नहीं है। यानी आस्था की आड़ लेकर वे जिस तरह अंध विश्वास के दूसरे कार्यक्रम चला रहे हैं वैसे ही निर्मल बाबा को दिखाना भी उनकी नज़र में सही है।
उनका दूसरा तर्क दर्शकों की पसंद का होगा। इसके मुताबिक अगर दर्शक देखना चाहते हैं तो हम क्यों न दिखाएं। ये एक तरह की ढिठाई है, मगर बहुत सारे संपादकों ने दर्शकों की पसंद को भी अपनी ढाल बना रखा है। उनका तीसरा तर्क होगा कि जब दूसरे चैनल इस तरह का कंटेंट दिखाकर दर्शकों का हरण करने लगते हैं तो हमें अपने बचाव में इसी तरह के उपाय करने पड़ते हैं। यानी अगर सब प्रतिज्ञा कर लें कि वे घटिया चीज़ें नहीं दिखाएंगे तो हम भी नहीं दिखाएंगे। उनका अंतिम तर्क यही है कि उन्हें भी सरवाइव करना है। अगर रेवेन्यू और टीआरपी साथ-साथ मिलती है तो हमें बाज़ार के दबाव में इसे स्वीकार करना ही पड़ता है और हम यही कर रहे हैं। अगर हम ये नहीं करेंगे तो चैनल चलेगा कैसे (जैसे चैनल चलाकर वे देश पर एहसान कर रहे हों)।
अब अगर इन दलीलों को रोशनी में आपने निर्मल बाबा के कार्यक्रमों को देखने की कोशिश की तो भ्रम में पड़ जाएंगे कि क्या कहें, किसे दोष दें। बाबा को, मीडिया को या बाज़ार को या फिर तीनों सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार हैं। बाबा खुले आम धोखाधड़ी कर रहे हैं मगर उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है, न प्रशासन, न पुलिस न कानून। कुछ चैनल मौके को भुनाने में लगे हुए हैं और बाज़ार तो खैर ऐसा करने के लिए उन पर दबाव भी बना रहा है और उन्हें प्रेरित भी कर रहा है। सबकी आपस में साठ गाँठ है और इसके विरूद्ध आवाज़ चाहे जितनी उठाई जाए होता कुछ नहीं। पिछले एक दशक में चैनलों को विभिन्न मंचों पर जितना कोसा गया है उसके बाद तो उनका विवेक जाग ही जाना चाहिए था और चैनलों को सुधर ही जाना चाहिए था मगर ऐसा हुआ नहीं है।
इसका मतलब है कि बीमारी गंभीर है और इलाज कठिन होगा और लंबा भी चलेगा। ये भी तय है कि इसे आत्मनियमन और संपादकों के विवेक भर पर नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि ये दोनों ही चीज़ें लगभग काम नहीं कर रही हैं। ऐसे में जो लोग निर्मल बाबा के विरोध में लामबंद हो रहे हैं उन्हें लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहना चाहिए।
(मुकेश कुमार जाने-माने पत्रकार हैं और न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल के एडीटर इन चीफ और सीईओ हैं।)
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