Wednesday, April 11, 2012

पुलिस बनाम जनता

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
यह सबसे बुरी और गलत बात है कि अधिक मुकदमे दर्ज होने का कारण आला पुलिस अधिकारियों द्वारा थानाधिकारी से पूछा जाता है। जबकि इसके विपरीत होना तो यह चाहिये कि जिस थाने में अधिक मुकदमे दर्ज हुए हों, उस थाने को जनता के प्रति अधिक संवेदनशीलता का प्रमाण-पत्र दिया जाना चाहिये। आखिर अपराधियों से आहत जनता का कानूनी तौर पर उपचार प्रदान करने का काम करने के लिये ही तो पुलिस थानों की स्थापना की गयी है। जिन्हें अधिकतम कानूनी उपचार प्रदान करने के लिये, सवालों के घेरे में खड़ा करना किसी भी सूरत में न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। क्या कभी किसी उच्चतम स्तर के चिकित्सा अधिकारी ने नीचे के स्तर के चिकित्सक से यह सवाल किया है कि उसके द्वारा अधिक संख्या में बीमारों का उपचार क्यों किया गया? यदि नहीं तो पुलिस थाने से भी यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि उसने अधिक फरियादियों की फरियाद दर्ज क्यों की? क्योंकि पुलिस भी तो आहत व्यक्ति को कानूनी उपचार प्रदान करती है। कानूनी उपचार भी जीवन के लिये उतना ही जरूरी है, जितना कि चिकित्सक द्वारा प्रदान किया जाने वाला शारीरिक या मानसिक उपचार।

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भारत को आजाद हुए छह दशक से अधिक समय गुजर चुका है, लेकिन भारत में आम भारतीय का मान-सम्मान एवं उसकी जानमाल सुरक्षित नहीं हैं। हालात इतने खतरनाक हैं कि राष्ट्रपति भवन तक में चोर अपना कमाल दिखा जाते हैं। ऐसे में आम व्यक्ति की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में सहज कल्पना की जा सकती है।

कहने को तो संविधान में साफ शब्दों में लिखा गया है कि ‘‘कानून के समक्ष प्रत्येक व्यक्ति को समान समझा जायेगा एवं कानून का सभी को समान संरक्षण प्राप्त होगा।’’ केवल इतना ही नहीं, बल्कि ऐसा प्रावधान संविधान के भाग तीन में नागरिकों के मूल अधिकारों के रूप में प्रदान किया गया है, जिनका उल्लंघन करने का किसी को कोई अधिकार नहीं है और यदि कोई व्यक्ति या स्वयं सरकार भी मूल अधिकारों का उल्लंघन करें तो उनके खिलाफ सीधे देश की सुप्रीम कोर्ट तथा अपने राज्य के हाई कोर्ट में याचिका दायर करके संवैधानिक और कानूनी संरक्षण मांगा जा सकता है। हमारे देश के संविधान में देश के सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट्स को मूल अधिकारों के गारण्टर एवं पहरेदार के रूप में दर्शाया गया है। आजादी के बाद अनेकों बार, अनेकानेक मामलों में सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट्स ने इस जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह भी किया है।

इसके बावजूद भी बार-बार यह बात सामने आती रहती है कि आज भी आम व्यक्ति को यदि सबसे अधिक भय है, तो केवल-पुलिस से ही है। उस पुलिस से जिसे संविधान में पब्लिक सर्वेण्ट अर्थात् जनता की नौकर लिखा गया है। देश के किसी न किसी हिस्से से आये दिन खबरें आती रहती हैं कि पुलिस ने एक आम व्यक्ति के साथ किस प्रकार से अमानवीय एवं क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि पुलिस लोगों को सुरक्षा दिलाने के बजाय, लोगों को आतंकित एवं भयभीत करने के लिये अधिक प्रचारित होती रहती है या मीडिया द्वारा प्रचारित की जाती रहती है। कथित रूप से पुलिस की इतनी क्रूर एवं भयाक्रान्त कर देने वाली छवि के उपरान्त भी ऐसा माना जाता है कि पुलिस के सहयोग के बिना किसी भी आम-ओ-खास और यहॉं तक कि गुण्डों, अपराधियों और असामाजिक तत्वों का भी काम नहीं चल सकता।

समाज में मान्यता है कि जहॉं एक ओर बड़े लोगों को पुलिस छाया की तरह से सुरक्षा प्रदान करती है। वहीं दूसरी ओर पुलिस पर गुण्डों को संरक्षण प्रदान करने के आरोप भी लगाये जाते हैं, जबकि आम व्यक्ति की शिकायत रहती है कि पुलिस न मात्र उसकी सुनती ही नहीं, बल्कि पुलिस उसके साथ अभद्रता भी करती रहती है। देश के सभी प्रान्तों में समाज में अधिकतर लोगों का यह भी मानना है कि बड़े लोगों एवं गुण्डों का तो पुलिस कुछ कर नहीं सकती और अपनी भड़ास आम व्यक्ति के विरुद्ध निकालती है। सम्भवत: इसलिये भी पुलिस से आम व्यक्ति सबसे अधिक त्रस्त है। इन सब बातों में कितनी सच्चाई है। इस विषय की पड़ताल करना न तो इस आलेख को लिखने का लक्ष्य है और न हीं ऐसी कोई पड़ताल की गयी है, बल्कि इस आलेख को लिखने के पीछे यह बतलाने का प्रयास है कि जब पुलिस को लोगों की सुरक्षा प्रदान करने के लिये वेतन दिया जाता है, फिर भी पुलिस आम लोगों के विरुद्ध अभद्र व्यवहार करने के लिये बदनाम होती रहती है। ऐसे में आम व्यक्ति पुलिस से कैसे निपट सकता है?

हम सभी जानते हैं कि हर समस्या के एक से अधिक पहलू होते हैं। प्रत्येक पहलू को निष्पक्षतापूर्वक समझे बिना साधारण सी समस्या का समाधान सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा देखने में आया है कि पुलिस अपनी छवि में कैद है। पुलिसजनों के मनोमस्तिष्क में यह बात घर किये हुए है कि यदि वह अपनी अंग्रेजों की दैन क्रूरता वाली छवि से मुक्त हो गयी तो उसकी महत्ता समाप्त हो जायेगी और उसकी कोई सुनने वाला नहीं है। कुछ सीमा तक इसमें सच्चाई भी है। इस कारण पुलिस अपनी पुरातन और अंग्रेजों की पुलिस दैन अमानवीय छवि में ही सम्भवत: न चाहकर भी कैद है।

इसके विपरीत हमें देखना होगा कि क्या पुलिस के बिना हमारा काम चल सकता है। जब भी कोई मुसीबत आती है, हम सीधे पुलिस थाने में जाकर गुहार करते हैं, बेशक थाने में कथित रूप से बिना लिये दिये सुनवाई नहीं होने के ढेरों आरोप पुलिस के माथे पर हमेशा ही लगते रहते हैं। लेकिन यह भी तो सच है कि पुलिस हमें संरक्षण प्रदान करती है। इसलिये पुलिस के अस्तित्व को आम व्यक्ति के जीवन में नकारा नहीं जा सकता। यदि एक दिन के लिये भी पुलिस को समाज से हटा दिया जावे तो हमारे पड़ौस में रहने वाले कितने ही सफेदपोश चेहरे सरे राह लोगों को लूटते मिल जायेंगे। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि पुलिस के नाम से ही आम व्यक्ति की सुरक्षा होती है।

इसके उपरान्त भी इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पुलिस को सुरक्षा प्रदान करने के एवज में आम व्यक्ति से अभद्रता करने का हक होना चाहिये। एक सम्मानित व्यक्ति जब पुलिस थाने में जाता है तो पूरी उम्मीद के साथ जाता है कि उसको कानूनी संरक्षण प्रदान किया जायेगा। लेकिन उसे अधिकतर तिरस्कार एवं अपमान ही सहना पड़ता है। थाने की प्रचलित परम्परानुसार हर सम्भव प्रयास यह होता है कि जहॉं तक सम्भव हो फरियादी की एफआईआर दर्ज नहीं करनी पड़े। एफआईआर दर्ज करते ही उस थाना क्षेत्र में एक अपराध की संख्या और बढ़ जाती है। जॉंच-पड़ताल करने के लिये एक मुकदमा और दर्ज हो जाता है। जिसका न्यायालय में चालान करना होता है। पुलिस के आला अधिकारियों को मुकदमों की संख्या बढने का जवाब देना पड़ता है।

यह सबसे बुरी और गलत बात है कि अधिक मुकदमे दर्ज होने का कारण आला पुलिस अधिकारियों द्वारा थानाधिकारी से पूछा जाता है। जबकि इसके विपरीत होना तो यह चाहिये कि जिस थाने में अधिक मुकदमे दर्ज हुए हों, उस थाने को जनता के प्रति अधिक संवेदनशीलता का प्रमाण-पत्र दिया जाना चाहिये। आखिर अपराधियों से आहत जनता का कानूनी तौर पर उपचार प्रदान करने का काम करने के लिये ही तो पुलिस थानों की स्थापना की गयी है। जिन्हें अधिकतम कानूनी उपचार प्रदान करने के लिये, सवालों के घेरे में खड़ा करना किसी भी सूरत में न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। क्या कभी किसी उच्चतम स्तर के चिकित्सा अधिकारी ने नीचे के स्तर के चिकित्सक से यह सवाल किया है कि उसके द्वारा अधिक संख्या में बीमारों का उपचार क्यों किया गया? यदि नहीं तो पुलिस थाने से भी यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि उसने अधिक फरियादियों की फरियाद दर्ज क्यों की? क्योंकि पुलिस भी तो आहत व्यक्ति को कानूनी उपचार प्रदान करती है। कानूनी उपचार भी जीवन के लिये उतना ही जरूरी है, जितना कि चिकित्सक द्वारा प्रदान किया जाने वाला शारीरिक या मानसिक उपचार।

इसलिये आमजन को सबसे पहला काम तो यह करना होगा कि समाज में ऐसा माहौल बनाया जावे कि अधिक मुकदमे दर्ज करने वाले पुलिस थानों को पुरस्द्भत किया जावे। इसके लिये प्रान्तीय सरकारों को बाकायदा कानून बनाने के लिये बाध्य किया जावे कि जब भी कोई व्यक्ति पुलिस थाने में अपनी फरियाद लेकर जाये, तो सबसे पहले उसका मुकदमा दर्ज किया जावे, उसके बाद यह देखा जावे कि आहत व्यक्ति की ओर से प्रस्तुत तथ्य सत्य हैं या नहीं। इस बात की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी की जा चुकी है। किसी भी अस्पताल में रोगी का केस पहले बनाया जाता है, यह बाद में देखा जाता है कि रोगी को क्या तकलीफ या क्या बीमारी है और या कोई बीमारी है भी या नहीं!

दूसरी और सबसे महत्वूपर्ण बात यह है कि हमारे देश में इतने कानून हैं कि पश्‍चिमी देशों के कानूनविदों द्वारा भारत को कानूनों का जंगल कहा जाता है। इस कानूनों के जंगलों की समाज के लिये क्रियान्विती की जिम्मेदारी हमारे प्रशासनिक ढॉंचे में पुलिस के सिर पर डाली है। इसके साथ-साथ यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि पुलिस द्वारा कोर्ट में पेश मुकदमों में से अधिसंख्य मामलों में अपराधी छूट जाते हैं। केवल इतना ही नहीं, बल्कि एक तटस्थ अध्ययन के अनुसार तो सजा पाने वालों में निर्दोष लोगों की संख्या अधिक है। यह तथ्य सरकार से छिपा नहीं है। इसके बावजूद भी इस बीमारी से मुक्ति के लिये कोई स्थायी समाधान क्यों नहीं सोचा जाता है? यह अपने आप में आश्‍चर्य का विषय है।

हमारे देश में समस्याओं के निराकरण के लिये हमेशा सतही उपचार किये जाते रहे हैं। जबकि सबसे बड़ी समस्या है मूल में, अर्थात् कानून को लागू करने वाली पुलिस के सिपाही से लेकर सबसे बड़े व सीधे प्रथम श्रेणी में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा भर्ती किये जाने वाले आईपीएस तक किसी भी पुलिसजन के लिये किसी भी प्रकार की कानूनी शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता नहीं होना। प्रशिक्षण के दौरान कानून सिखाने की औपचारिकता पूर्ण करके इन सबको कानून का विशेषज्ञ बनाया जाता है। यदि इस प्रकार के प्रषिक्षण द्वारा ही कानून सिखाया जाना सम्भव है तो फिर देशभर में कानून के विश्‍वविद्यालय एवं महाविद्यालयों की स्थापना की आवश्यकता ही नहीं है।

वास्तव में हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहॉं कानूनों का जंगल है और उस कानूनी जंगल को सुरक्षित रखने, उसे देश के हर व्यक्ति के लिये फलित करने की पूरी जिम्मेदारी कानून से अनभिज्ञ पुलिस के लोगों के हाथ में दी गयी है। अर्थात् जिस प्रकार से दूर-दराज गॉंवों में गैर-कानूनी रूप से नीम हकीम लोगों का उपचार करते हैं। उसी प्रकार देशभर में पुलिस द्वारा भी कानूनी उपचार प्रदान करने के लिये विधि-स्नातक की योग्यता नहीं होने के उपरान्त भी खुलेआम नीम-हकीमी कानूनी उपचार प्रदान किया जा रहा है। फिर भी हम आशा करते हैं कि पुलिस कानून के अनुसार हमें सही तरह से संरक्षण प्रदान करे? यह कैसे सम्भव है? जिन लोगों ने विधिवत तरीके से कानून पढ़ा नहीं। जिन्हें संविधान की सर्वोच्च्ता, नागरिक मूल अधिकारों की गरिमा और मानव अधिकारों की पवित्रता का वास्तविक ज्ञान नहीं, उन लोगों से इन सबके क्रियान्वयन एवं इनकी सुरक्षा की अपेक्षा करना सिवा मूर्खता के और क्या है? जब एक पुलिस वाला किसी आहत व्यक्ति को कानूनी उपचार प्रदान करने के बजाय उसके साथ अभद्र व्यवहार कर रहा होता है तो उसे ज्ञात ही नहीं होता है कि वह संविधान के अनुच्छेद- 14, 19, 21 एवं 32 का तो उल्लंघन कर ही रहा है। साथ ही साथ अपने देश को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर खुले तौर पर मानव अधिकारों का उल्लंघन करने वाला देश भी घोषित कर रहा होता है।

पुलिसवाला उपरोक्त कारणों से ऐसा कर रहा है। तो निष्कर्ष की बात यह है कि हम उन लोगों से कानून लागू करने की उम्मीद करते हैं, जो इस बात को जानते ही नहीं कि कानून है क्या? परन्तु इसमें पुलिस का कतई भी दोष नहीं है, बल्कि दोष देश के कर्णधारों का है।

हमारे देश में अंग्रेजों की देन अमानवीय शासन व्यवस्था आज भी ज्यों की त्यों लागू है, जिसके तहत विधि मन्त्रालय का मुखिया अर्थात् सचिव एक आईएएस होता है, जो कि सामान्यत: किसी भी विषय का स्नातक (ग्रेज्युएट) होता है। उससे भी कानून में स्नातक होने की अपेक्षा नहीं है। विधि सचिव के नियन्त्रण में विधि-मन्त्रालय एवं विधि सचिव की सलाह पर विधि-मन्त्री कार्य करते हैं। और विधि-मन्त्रालय ही प्रान्तीय या केन्द्रीय कानूनों में संशोधन करने या नये कानून बनाने का काम करता है। ऐसे में देश की दशा क्या होनी चाहिये? सहज ही कल्पना की जा सकती है। लेकिन हमें इसी देश में रहना है और इसी देश की नीम हकीम पुलिस व्यवस्था से कानूनी संरक्षण भी पाना है। ऐसे में आम व्यक्ति क्या करे?

इस विषय के सभी पहलुओं पर चिन्तन-मनन करने के उपरान्त निष्कर्ष रूप में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि एक आम व्यक्ति को तीन मोर्चों पर लगातार कार्य करने की सख्त जरूरत है। तीनों मोर्चों पर काम करने से भी पहले लोगों को सक्रिय एवं अराजनैतिक समूहों के रूप में समर्पित होकर संगठित होने की जरूरत है, क्योंकि अकेले व्यक्ति की आवाज किसी को सुनाई नहीं देती है। संगठित होकर आपको निम्न तीन मोर्चों पर लगातार एवं प्रतिदिन काम करने होंगे-

जनबल एवं धनबन की ताकत : सबसे पहले आपको अपने संगठन में जनबल एवं धनबन की ताकत बढाने के लिये प्रतिदिन लगातार काम करते रहना होगा। जिससे कि आपको कभी भी अपने उद्देश्य के लिये शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने या आन्दोलन के लिये अपने ही सदस्यों की पर्याप्त संख्या, जिसे प्रशासन भीड़ कहता है, को जुटाने में मुश्किलातों का सामना नहीं करना पडे़। इसी प्रकार से किसी भी कार्य को अंजाम देने के लिये संसाधनों की अत्यन्त जरूरत होती है, जिनके लिय धन की पर्याप्तता एवं लगातार उपलब्ध्ता बहुत जरूरी है। इसलिये नियमित रूप से सही स्त्रोतों से धन संग्रह करना भी अत्यन्त जरूरी है। जिससे कि धन की कमी में किसी प्रकार की परेशानी का सामना नहीं करना पड़े।

कुव्यवस्था का विरोध एवं समाधान-कानून की उपाधि की अनिवार्यता : दूसरा, आपको अव्यावहारिक एवं गैर- कानूनी तथा आम व्यक्ति के हितों के विरुद्ध जारी कुव्यवस्था का न मात्र लगातार और हर मंच पर विरोध करना है, बल्कि उसमें सुधार के लिये सुझाव एवं समाधान भी पेश करने होंगे। जिससे कि केन्द्र एवं राज्यों की सरकारें आपकी पीड़ा एवं पीड़ा के कानूनी उपचार को समझ सके। प्रस्तुत विषय में अपराधों की जॉंच करने वाले प्रत्येक पुलिसजन, आईपीएस एवं आईएएस की भर्ती की पहली और जरूरी शर्त के रूप में सभी के लिये कानून की उपाधि की अनिवार्यता को लागू करवाने के लिये लगातार मांग और लम्बे जन-आन्दोलन करने की जरूरत है।

प्रचलित व्यवस्था तथा कानूनों का आदर और पालन करना : तीन, जब तक उपरोक्त परिवर्तन नहीं होते हैं, तब तक देश के वफादार नागरिक होने के नाते प्रचलित व्यवस्था तथा कानूनों का आदर और पालन करना हम सबका प्रथम धर्म और कानूनी कर्त्तव्य है। अत: प्रचलित कानून के अनुसार पुलिस को कानून का क्रियान्वयन करने के लिये बाध्य किया जावे। जिसके लिये हमें एक सुनियोजित और कारगर नीति पर कार्य करना होगा और इसे पूर्ण धैर्य पूर्वक  अंजाम तक पहुंचाना होगा।

भारत में प्रचलित साक्ष्य अधिनियम के तहत एक प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्यी की गवाही के आधार पर सुप्रीम कोर्ट किसी भी अपराधी को फांसी तक की सजा बहाल रख सकता है, तो फिर आप इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि पुलिस द्वारा आम व्यक्ति के विरुद्ध अभद्रता किये जाने या गाली-गलोंच करने के लिये पुलिस के विरुद्ध वही कानून कैसे मूक रह सकता है? जरूरत है, कानून के समक्ष, कानूनी रूप से, यह सिद्ध करने की, कि किसी पुलिसजन ने आपके साथ अभद्रता एवं गाली-गलोंच की है।

इसके लिये अनेक प्रकार के टिप्स (संघर्ष सूत्र) हो सकते हैं, जिन्हें हम भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के प्रशिक्षण शिविरों में बास के कार्यकर्ताओं को बतलाते हैं। उन्हें सार्वजनिक करना उचित नहीं है। क्योंकि विस्तार से समझाए बिना नकारात्मक सोच के पाठक उनका नकारात्मक अर्थ निकाल सकते हैं,  लेकिन एक तरीका पाठकों के हित में सामने प्रस्तुत करना जरूरी है।

लेकिन सबसे पहले आपको उक्त विवेचन के प्रकाश में इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पुलिस को नीम हकीमी कानूनी उपचार करने का लाईसेंस जनता द्वारा निर्वाचित सरकार द्वारा ही तो दिया गया है। यही नहीं पुलिस अनेक राजनैतिक दबावों में भी काम करती है। अधिक मुकदमें दर्ज होने पर थाने के प्रभारी से उच्च पुलिस अधिकारी सवाल-जवाब करते हैं। कहीं भी अपराधियों द्वारा वारदात करने पर पुलिस को ही अकर्मण्यता का दोषी माना जाकर भ्रष्टाचार के मामले में पुलिस को सर्वाधिक बदनाम एवं प्रचारित किया जाता है, बेशक वातानुकूलित कक्षों में विराजमान अन्य अनेक सफेदपोश उच्चाधिकारी कितने ही अधिक भ्रष्ट क्यों न हों? इन हालातों में पुलिस किस प्रकार की मानसिकता से गुजर रही होती है, इसे भी हमें हर और हर कदम पर समझकर याद रखना होगा।

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए जब भी पुलिस द्वारा अपना फर्ज निर्वाह करने में आनाकानी की जावे, अभद्रता या गाली-गलोंच की जावे या फरियादी का मुकदमा दर्ज करने से इनकार किया जावे तो सुसभ्य तरीके से समूह के रूप में दुबारा पुलिस के समक्ष जाएँ और पीड़ित व्यक्ति की बात को फिर से थाना प्रभारी या उपलब्ध थाने के वरिष्ठतम अधिकारी/निरीक्षक/हैड कॉंस्टेबल के समक्ष तथ्यों सहित पेश करें। बहुत अधिक सम्भावना है कि आपकी बात सुन ली जावेगी और मामला दर्ज करके पुलिस मामले पर जरूरी कानूनी कार्यवाही करेगी, क्योंकि पुलिसवाले भी समाज के ही हिस्से हैं। उनको वेतन इसी बात के लिये मिलता है, और इसी से उनके  परिवार का पालन-पोषण होता है। इसके अलावा पुलिसवालों की किसी आम व्यक्ति से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं होती है!

लेकिन यदि आपका वास्ता किसी दुष्ट प्रकृति के ऐसे पुलिसवाले से पड़े जो अपने फर्ज को भूलकर वर्दी के नशे में आपका तिरस्कार एवं अपमान करने का प्रयास करे, तो सबसे पहले तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज रहे आनन्द नारायण मुल्ला की इस बात को याद रखें, जो उन्होंने अपने एक निर्णय में लिखी है कि पुलिस वर्दीधारी गुण्डों का गिरोह है। अत: चुपचाप थाने से बाहर आ जावें, क्योंकि वर्दीधारी गुण्डे आपके साथ कैसा भी दुर्व्यवहार कर सकते हैं। बाहर आकर  पीड़ित  की ओर से सारी घटना की रिपोर्ट फिर से सम्बन्धित पुलिस अधीक्षक के नाम बनायी जावे, जिसमें उल्लेख किया जावे कि उपस्थित थाना प्रभारी (या जो भी हो) द्वारा रिपोर्ट लिखने से इनकार करने एवं  पीड़ित के साथ अभद्रता या गाली-गलोंच से पेश आने के कारण दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 (3) के तहत यह रिपोर्ट पुलिस अधीक्षक को प्रस्तुत करने की मजबूरी है।

याद रहे कि इस रिपोर्ट के साथ आपके समूह के किन्हीं दो समझदार, विश्‍वसनीय, परिपक्व एवं निर्भीक लोगों को थाने में हुई आपराधिक घटना का प्रत्यक्षदर्शी गवाह बनाया जावे और इन दोनों गवाहों के पुलिस अधीक्षक के नाम बनायी गयी रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करवाये जावें। रिपोर्ट के तथ्यों के समर्थन में  पीड़ित एवं दोनों गवाहों की ओर से 10-10 रुपये के नॉन-ज्यूडिशियल स्टॉम्प पेपर पर, शपथ- पत्र बनवाकर रिपोर्ट के साथ संलग्न की जावे, जिनका ब्यौरा रिपोर्ट में दिया जावे। समस्त विवरण रिपोर्ट आदि की फोटो कॉपी अपने पास अवश्य रखें। रिपोर्ट के अन्त में साफ शब्दों में लिखा जावे कि  पीड़ित के मामले की रिपोर्ट दर्ज करवाने के साथ-साथ थाने में अभद्रता करने के लिये दोषी लोगों (थाने में जाते समय पुलिस वालों की वर्दी पर लगी नेम प्लेट पर नाम पढ लें और यदि किसी ने नेम प्लेट नहीं लगा रखी हो तो उसका चेहरा, बनावट, रंग, उम्र आदि का उल्लेख रिपोर्ट में करें) के विरुद्ध भी एफआईआर दर्ज की जावे। अन्त में पुलिस अधीक्षक को लिखें के यदि उनकी रिपोर्ट तत्काल दर्ज कर कानूनी उपचार उपलब्ध नहीं करवाये गये तो विवश होकर मामला न्यायालय में पेश करना पड़ेगा।

यदि आप जिला मुख्यालय पर रहते हों तो 4-5 समझदार लोग समूह के रूप में ही पुलिस अधीक्षक से मिलकर रिपोर्ट पेश करें एवं उसकी पावती अवश्य ही प्राप्त कर लें। अन्यथा फैक्स या रजिस्टर्ड-एडी के जरिये अपनी रिपार्ट भेजें। रिपार्ट में  पीड़ित का फोन एवं मोबाइल नम्बर अवश्य लिखें। पुलिस अधीक्षक को फोन/मोबाइल पर भी सम्पर्क करें और 4-5 दिन तक इन्तजार करें। यदि 4-5 दिन में कोई कार्यवाही नहीं हो तो पहले फोन पर फिर से बात करें और यदि कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं मिले तो शपथ-पत्र की फोटो प्रति एवं  पीड़ित की रिपोर्ट सहित मामले को किसी तटस्थ, समझदार एवं अनुभवी वकील के माध्यम से स्थानीय कोर्ट में पेश करें, जिसमें थाना प्रभारी के साथ-साथ पुलिस अधीक्षक को कानूनी कार्यवाही नहीं करने के लिये दोषी ठहराकर पार्टी बनाया जावे। साथ ही फिर से फरियादी एवं दोनों गवाहों के नये शपथ- पत्र कोर्ट में पेश करने को वकील से कहें। हो सके तो पीड़ित एवं दोनों गवाहों के बयान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत कोर्ट के समक्ष दर्ज करवा दिये जावें। ताकि मामले की पुलिस जॉंच के दौरान पुलिस द्वारा आपके गवाहों के बयानों को नकारे जाने की कोई सम्भावना नहीं रहें।

तीन मोर्चों पर की जाने वाली उपरोक्त समस्त कार्यवाही में लोगों का गवाह के रूप में सहयोग व समर्थन तथा धन की जरूरत होगी। साथ ही साथ भाग-दौड़ में मानसिक सम्बल की भी जरूरत होती है, जिसके लिये हर कोई साधारण व अकेला व्यक्ति सक्षम एवं समर्थ नहीं हो सकता है। इसलिये हमने समूह के रूप में संगठित होने की बात पर जोर दिया है और संगठन भी ऐसा हो, जिसमें जनबल एवं धनबल की मजबूत ताकत हो। ऐसे ही लक्ष्यों को पाने की लिये हमारे द्वारा 1993 में भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) की स्थापना की गयी है। लेकिन मात्र इस संस्थान की सदस्यता ग्रहण करने से भी कुछ नहीं हो सकता।

सदस्यों को सदस्यता ग्रहण करने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर और स्थानीय स्तर पर इस संस्थान के मंच पर लगातार जनबल एवं धनबल की ताकत को बढाते रहना होगा। अन्यथा केवल सदस्यता ग्रहण करने से कुछ नहीं होगा। फिर भी याद रहे कि किसी भी कार्य की शुरुआत पहले कदम से ही होती है। जो हजारों लोगों ने सदस्य बनकर उठा लिया है। अगले कदम के लिये प्रयास करें और धैर्य रखें। किसी भी पेड़ में फल लगने में समय लगता है और फल लगने तक धैर्य के साथ-साथ पेड़ को सींचना तो होता ही है, उसे संरक्षित भी रखना पड़ता है। क्या आप भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान नाम के इस पेड़ को धैर्यपूर्वक, सींचने, संरक्षित रखने और फलते-फूलते देखने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ होकर तत्पर हैं? यदि हॉं तो आप केवल पुलिस से ही नहीं, हर प्रकार के अन्याय से निपट सकने में सक्षम बन सकते हैं। तो फिर विलम्ब किस बात का? अपने सद्प्रयास शुरू करें-आज, अभी और तत्काल। हम सदैव से कहते रहे हैं कि-

एक साथ आना शुरुआत है,
एक साथ रहना प्रगति है और
एक साथ काम करना सफलता है।

भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान के 5370 आजीवन सदस्य यदि उपरोक्त बताये अनुसार सच्चे अर्थों में एकजुट हो सकें तो कोई कारण नहीं कि उनकी बात नहीं सुनी जावे और उनके अधिकारों का हनन करने की कोई हिमाकत करके कानून की सजा पाने से बच सके। एक बार दिल से शुरुआत करके तो देखें। 

आपका साथी-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास), 0141  -2222225  मो. 98285-02666

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