Thursday, March 15, 2012

पत्रकारिता की खाल में पेटी कांट्रेक्टर


पत्रकारिता की खाल में पेटी कांट्रेक्टर 
श्रमजीवी पत्रकारों की आड़ में करोड़ों बटोरने वाले भदौरिया की बेदखली की घड़ी नजदीक
     -आलोक सिंघई-  
स्वयंभू भदौरिया
       नील रंगे सियार का रंग उतरने के बाद अब जनता के शासकों ने अपने सत्ता विस्तार की दुंदुभि बजा दी है। मिशन 2013की तैयारी में लगी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने पहली बार पत्रकारों की आड़ में सरकार को चमकाने वाले सत्ता के दलालों की विदाई की तैयारी कर ली है। इस श्रंखला की शुरुआत  खदान माफिया पर प्रहार से हुई है। भोपाल के पत्रकार भवन में बरसों से अवैध कब्जा जमाए बैठे मध्यप्रदेश श्रमजीवी पत्रकार संघ के स्वयंभू भदौरिया की गर्दन नापना भी इसी श्रंखला का अगला कदम है। समाज और कानून के गुनहगार इस मनहूस ने लगभग सत्रह साल पहले लोकतंत्र को झांसा देने की जो इबारत लिखी थी उसकी अब पोल खुल गई है। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की जबलपुर बैंच के सामने ये तथ्य लाए जा चुके हैं कि किस तरह जालसाज भदौरिया ने खुद को पत्रकार भवन का वारिस बताने की साजिश रची थी। तबसे लेकर अब तक ये शख्स हर कदम पर प्रदेश भर के पत्रकारों, सरकार और प्रशासनिक तंत्र को गुमराह करता रहा है। इसका नतीजा ये हुआ कि इसने भले ही डेढ़ दशकों तक खबरची कहे जाने वाले समाज के जागरूक लोगों की आंखों में धूल झोंकी हो पर दस्तावेजों पर वह बुरी तरह उलझ गया है। उसके अपराधों की फेरहिस्त इतनी लंबी हो गई है कि वह अपने ही हाथों से अपने मुंह पर कालिख पोतता नजर आ रहा है। 
 
भारतीय लोकतंत्र में अपना कारोबार करके जायदाद बनाने के आजादी हर किसी को है लेकिन जनमत को झांसा देकर दौलत कमाने वालों को जनता अपने जूतों तले रौंद देती है। ये जानते समझते भी शमशाबाद के विजय सिंह वल्द प्रेमसिंह भदौरिया ने पत्रकारों की आड़ में दौलत कमाने की गुस्ताखी की है। अब भी इसके हौसले नशे में इस कदर धुत है कि उसे जरा भी गुमान नहीं कि उसके ख्वाबों का महल कबका धूल धूसरित हो चुका है। वह अब भी पत्रकार भवन के बाहर चंद चमचों के साथ बैठकर मनहूसियत फैलाकर ये जताने की कोशिश कर रहा है कि उसे कोई बेदखल नहीं कर सकता। हालांकि मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देश, सरकार के प्रयास, पत्रकारों के सहयोग से हुए चुनावों के बाद चुनी गई नई पत्रकार भवन समिति ने अपना काम संभाल लिया है। अब भवन समिति को मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में वास्तविक हालात पर अपनी ओर से तथ्य प्रस्तुत करने हैं। 
 
इस मुकदमे के एक पक्षकार और पत्रकारों के सच्चे हितैषी स्व. अनिल साधक अब हमारे बीच नहीं हैं। एक अन्य पक्षकार मध्यप्रदेश शासन ने अब तक इस मसले पर चुप्पी साध रखी थी। तीसरे पक्षकार के रूप में पत्रकार भवन समिति भी अब तक गोलमोल रुख अपनाती रही है। इसके बावजूद अब जब भवन समिति के चुनाव हो चुके हैं और नई समिति पत्रकारों के हित में अपने कदम आगे बढ़ाती नजर आ रही है तब साफ हो चला है कि अदालत को अब ज्यादा समय तक गुमराह कर पाना किसी के बस की बात नहीं होगी। 
कहते हैं अपराधी को जरा भी गुमान नहीं होता कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। बरसों पहले जब मध्यप्रदेश पुलिस के एक नशाखोर अफसर ने अपने गैरकानूनी कार्यों के खिलाफ आवाज उठाने वाले पत्रकारों की आवाज बंद करने का षडय़ंत्र रचा था तब किसी ने न सोचा था कि एक दिन ये विषबेल लोकतंत्र के लिए ही घातक साबित होने लगेगी। नशाखोरी और अय्याशियों के लिए मशहूर इस अफसर ने खुफिया विभाग की कमान संभालने के बाद पत्रकारों के सूचना तंत्र का उपयोग शुरु करने का प्रस्ताव सरकार के पास भेजा। 

तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उस प्रस्ताव को ये सोचकर मंजूरी दे दी कि सरकार को बगैर वेतन दिए अच्छा सूचना तंत्र मिल जाएगा। तब इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन ही सबसे प्रमुख संगठन होता था। उसी के सदस्य बन बैठे भदौरिया को शासन का समर्थन दिलवाकर आईएफडब्ल्यूजे की मध्यप्रदेश इकाई का प्रमुख बनवाया गया। इस चुनाव में प्रदेश भर में सरकार के खुफिया तंत्र से जुड़े पत्रकारों और कथित पत्रकारों को शामिल किया गया था। जाहिर था पुलिस प्रमुख के फरमान को सफल तो होना ही था। ये कहानी कुछ सालों तक ठीक चली। बाद में भदौरिया ने अफसरों को कहा कि संगठन से जुड़े पत्रकार सूचनाएं दे सकें इसके लिए उन्हें विज्ञापन के रूप में आर्थिक मदद दिलवाई जाए। इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने के लिए साप्ताहिक पत्र प्रकोष्ठ बनाया गया। इस सूची में शामिल पत्रकारों को विज्ञापन दिए जाने लगे। लेकिन जनसंपर्क महकमे पर पुलिस का नियंत्रण तो था नहीं सो धीरे धीरे विज्ञापन के रिलीज आर्डर बिकने लगे और सरकारी विज्ञापनों का खेल सरकार के लिए सिरदर्द बन गया। 

नतीजतन दिग्विजय सिंह सरकार ने छोटे अखबारों के विज्ञापन बंद करके केवल चंद बड़े अखबारों को ही विज्ञापन देने की रणनीति बनाई। इसका परिणाम ये हुआ कि पिछले कुछ सालों में संवाद का जो कथित तंत्र विकसित हो गया था वो अनाथ हो गया। अब इस  वर्ग के पत्रकारों ने धीरे धीरे ब्लैकमेलिंग को अपनी आय का स्रोत बनाना शुरु कर दिया। भदौरिया इसी ताक में था। उसने पहले तो भ्रष्ट अफसरों को ब्लैकमेल करना शुरु किया बाद में भ्रष्ट राजनेताओं और फिर ईमानदार अफसरों और ईमानदार राजनेताओं को भी पत्रकारिता के नाम पर गरियाना शुरु कर दिया। इन चंदाखोरों का गिरोह जनसंपर्क महकमे से टैक्सी किराए पर लेकर निकलता और परिवहन के नाकों, जंगलात के अफसरों, पीडब्ल्यूडी के इंजीनियरों, पंचायतों आदि के पदाधिकारियों को चमकाकर वसूली करता फिरता था। जब राजधानी के इन पतित पत्रकारों की गिरी हरकतें इलाकाई पत्रकारों ने देखीं तो उन्होंने भी वसूली का अभियान चला दिया। इसकी खबरें खुफिया तंत्र से सरकार के पास तक आनी शुरु हो गईं और बाद में खुफिया तंत्र ने कथित पत्रकारों की इस चिरकुट हरकतों से तौबा कर ली और उससे अपनी दूरियां बना लीं। 

ये वो दौर था जब भदौरिया ने पत्रकारिता का बाना पहिनकर पेटी कांट्रेक्टर का कारोबार भी शुरु कर दिया। दिग्विजय सिंह ने असनानी बिल्डर्स को मप्र राज्य परिवहन निगम की जमीन पर बाजार बनाने की अनुमति दिलवाई और कई महत्वपूर्ण जमीनों पर कालोनियां बनाने की मंजूरी दी। इस सौदे में अग्निपथ अखबार का प्रकाशन एक हिस्सा था। असनानी बिल्डर्स के प्रतिभाशाली इंजीनियर विशन असनानी ने करोड़ों की जमीन कौडियों के भाव में मिल जाने पर भदौरिया को बेनामी पार्टनर बना लिया और वह पेटी कांट्रेक्टर के साथ साथ बिल्डर भी बन गया। उसने रातीबड़ के मेंडोरा मेंडोरी गांव में एक रिटायर आईपीएस अफसर की 11 एकड़ जमीन हथिया ली। जब उसने ये जमीन हथियाई तब उसकी आय दो लाख रुपए से भी कम थी। आयकर विभाग का पेन नंबर इस बात की गवाही आज भी देता है। कथित तौर पर ये जमीन छह लाख रुपए एकड़ के भाव से खरीदी गई थी। प्रचारित ये किया गया कि राजगढ़ जिले के मलाबर गांव में रहने वाली बुआ की जमीन उनकी मृत्यु के बाद उन्हें वसीयत में मिली है। ये भी कहा गया कि गांव के लोगों ने उस जमीन को चरोखर की जमीन बनाने के एवज में ये राशि दी है। जबकि हकीकत ये थी कि गांव की जमीन ज्यादा से ज्यादा दस लाख रुपए की थी और रातीबड़ की जमीन छियासठ लाख रुपए में खरीदी गई थी। 

इलाके के एक भ्रष्ट राजनेता ने खुद को पाकसाफ रखने के लिए मलाबार की लावारिस संपत्तियों को बेचने की जवाबदारी इसी मनहूस को सौंपी थी ताकि बदनाम पत्रकारिता हो और अपने दुश्मनों को भी निपटाया जा सके। बाद में रातीबड़ की 11 एकड़ जमीन पर पत्रकारिता की ही धमकियों के माध्यम से काजू, अंगूर, के 100 पौधे वन विभाग ने लगवाए। इससे जमीन की कीमत बढ़ गई और 2006 में यह जमीन 2 करोड़ रुपयों में बेच दी गई। खुद को श्रमजीवी पत्रकार बताने वाले जालसाज भदौरिया ने 2004 में बैरसिया रोड़ पर तरावली के नजदीक इमलाहा में चालीस एकड़ जमीन कथित तौर पर  80 लाख रुपयों में खरीदी। इसमें से 22 एकड़ जमीन ये बेच चुका है और 18 एकड़ जमीन आज भी उसके पास है। असनानी बिल्डर्स ने सरकारी महकमों से मुफ्त के भाव में जमीनें दिलवाने के लिए इसे संत आशाराम नगर में 1500 वर्गफीट के भूखंडों पर दो, दो मंजिले मकान बनाकर दिए। इसी प्रकार दानिश बिल्डर्स से चूना भट्टी पर इसने 6000 वर्गफीट जमीन खरीदकर तीन मंजिला मकान बनाया जिसमें आज हास्टल चलाया जाता है और उससे होने वाली आय ही लाखों रुपयों की है। हर्षवर्धन नगर में दीपक चौहान नाम के बिल्डर ने इसे एक फ्लैट बनाकर दिया। दीपक चौहान आज पत्रकार भवन समिति के सदस्य के रूप में भदौरिया के कथित तौर पर हितरक्षक कहे जा रहे हैं। 

जबकि सूत्र बताते हैं कि भदौरिया और दीपक चौहान मिलकर मिसरौद के पास एक शापिंग मॉल बना रहे हैं।भदौरिया के पास आज फिएस्टा, टवेरा और तीन अन्य वाहन भी हैं जो कहां से खरीदे गए उस आय का कोई पता ठिकाना नहीं है। अन्य गाडिय़ां लड़कों के नाम हैं जो दिखावे के नाम पर पत्रकारिता भी करते हैं और निर्माण कार्यों में पेटी ठेकेदारभी हैं। एक बेटे के नाम से इसने पिछले दिनों गैमन इंडिया में पेटी कांट्रेक्ट से मिट्टी खोदने का काम लिया है। गैमन इंडिया के अफसरों को चमकाने के लिए भदौरिया का एक छर्रा इन दिनों अपने अखबार में अलग अलग खबरें छाप रहा है। डीबी मॉल समूह ने पहले तो गैमन इंडिया को अदालती दांवपेंच में उलझाया ताकि उसका प्रोजेक्ट पहले आ सके । अब प्रोजेक्ट में व्यवधान के लिए इस पैनल को उतार दिया गया है और खबरें छापकर गैमन इंडिया को परेशान किया जा रहा है। पत्रकारिता की आड़ में की जा रही इस ब्लैकमेलिंग को भाजपा सरकार चुप्पी साधे देख रही है। मध्यप्रदेश में औद्योगिक विस्तार आखिर क्यों गति नहीं पकड़ सका है इसे इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। आज भदौरिया करोड़ों की संपत्तियों का मालिक है और इसके बाद भी बहुत कम आयकर देता है। आयकर विभाग के अफसर उस पर इसलिए हाथ नहीं डालते क्योंकि वह खुद को पत्रकार प्रचारित करता है जबकि पत्रकारिता उसके लिए सिर्फ दौलत बनाने और बचाने का माध्यम है। 

बरसों पहले पनपा  वसूली का ये तंत्र एक समय इतनी बेहयाई पर उतर आया था कि ईमानदार अफसरों ने इस पर आपत्ति उठाना शुरु कर दी थी। इसलिए दिग्विजय सिंह सरकार के कार्यकाल के अंतिम दिनों में इस तंत्र पर शिकंजा कसा गया लेकिन बाद में दिग्विजय सिंह ने यह सोचकर इस गिरोह को धराशायी नहीं किया कि उनकी सत्ता तो जा रही रही है काहे के फालतू दुश्मनी पाली जाए। लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद सरकार में आई उमा भारती ने इन हालात पर अच्छी तरह गौर किया था सो उन्होंने पत्रकारिता की सफाई का बीड़ा उठाया। लेकिन इसी बीच वे सरकार से बेदखल कर दी गईं. 

बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा और बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने। गौर की कांग्रेसी पृष्ठभूमि सभी को मालूम थी इसलिए उन्हें सत्ता के दलालों ने आसानी से इस बात के लिए मना लिया कि वे सब करें पर पत्रकारिता से जुड़े ठेकेदारों को अपना काम करने दें। गौर तो समय की बरसात में ऊगे कुकरमुत्ते थे सो उन्होंने पपलू की तरह ये सलाह मान ली। बरसों बाद अब जब शिवराज सिंह सरकार पर माफिया से मिली भगत के आरोप लग रहे हैं तब सरकार को अपने गले पड़े इस मनहूस सूतक को उतार फेंकने की जिद सवार हुई है। पर्दे के पीछे कई पत्रकार बरसों से सरकारों को ये सलाह दे रहे हैं कि प्रदेश के विकास के लिए जरूरी है कि इस मनहूसियत को पत्रकार भवन से विदा किया जाए। सरकारों ने इस सलाह पर गौर भी किया लेकिन इसके साथ साथ सत्ता के कुछ दलाल भी  मुफ्त में शासकों को ये सलाह टिपा देते थे कि यदि पत्रकार जमा हो गए तो वे सरकार की परधनिया खोल देंगे। इस सलाह के बाद कमजोर शासक हमेशा चुप्पी साध लेते थे। मौजूदा भाजपा की सरकार विधानसभा के पटल पर एक मजबूत सरकार है। इसके बावजूद उसे ये तथ्य समझने में आठ साल लग गए कि वास्तविक पत्रकारिता कहीं और बसती है। 

मुरैना में आईपीएस की मौत के मामले में सरकार को अपने सूचना तंत्र की हैसियत आसानी से समझ में आ गई होगी। एक दुर्घटना कैसे हत्या बनी और फिर कैसे खनन माफिया का कलंक सरकार को अपने माथे ओढऩा पड़ा। सरकार का सूचना तंत्र इस मामले में जनता का मानस ही नहीं बना सका और नतीजा ये हुआ कि जब असंगठित विपक्ष ने प्रदेश बंद का आव्हान किया तो प्रदेश की जनता ने बगैर सोचे समझे अपना कारोबार बंद करके आव्हान को सफल बना दिया। इसके बाद भी यदि भारतीय जनता पार्टी सरकार को अपने सूचना तंत्र की औकात समझ में नहीं आती तो फिर उसका मालिक भगवान ही कहा जाएगा। दो सौ करोड़ से अधिक का बजट जीम जाने वाले सरकारी सूचना तंत्र की जवाबदारी थी कि वह इस दुर्घटना के सभी पहलुओं की पड़ताल करता और जनता के सामने सही स्थिति रखता ताकि प्रदेश के साढ़े छह करोड़ लोग गुमराह होने से बचते और प्रदेश के विकास की राह प्रभावित नहीं होती। विधानसभा में छायी मुर्दनी और बजट के महत्वपूर्ण मुद्दों पर शासकों की बेरुखी क्या प्रदेश को ऊंचाईयों पर ले जा सकती है। प्रदेश के लाखों करोड़ों बेरोजगारों के घरों में जो व्यवस्था दीपक न जला पाए क्या उसे शाबासी दी जा सकती है। 

इन सभी मुद्दों पर सरकार को काफी गहराई से विचार करना होगा। सरकार को एक बेहतर सूचना तंत्र तैयार करना होगा जो सुशासन की भावना को विकास की आंधी में तब्दील कर सके। भोपाल का पत्रकार भवन एक ऐसा मंच बन सके जो प्रदेश भर के पत्रकारों का प्रश्रय स्थल हो। भाजपा सरकार को अगले चुनाव में अपना जनाधार बनाए रखना है तो उसे ये मशक्कत तो करनी ही पड़ेगी। फिलहाल तो जवाबदारी पत्रकार भवन समिति की है कि वह पत्रकारों की संपत्ति का अतिक्रमण हटाने के लिए हाईकोर्ट को जमीनी हालात की सूचना दे ताकि मालवीय नगर के पत्रकार भवन में पत्रकारों की वास्तविक हलचलें शुरु की जा सकें।

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