डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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कुछ समय पूर्व मैंने एक खबर पढी थी कि अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये आरक्षित उनंचास फीसदी आरक्षित कोटे के अलावा शेष बचे सामान्य वर्ग के इक्यावन फीसदी पदों पर अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के तीस फीसदी प्रत्याशी मैरिट के आधार पर नियुक्त हो गये। इसे मीडिया द्वारा सामान्य वर्ग के हिस्से पर आरक्षित वर्गों का डाका बताकर प्रचारित किया गया। मीडिया के अनुसार सामान्य वर्ग के लोगों के लिये शेष बचे इक्यावन फीसदी का तीस फीसदी कोटा आरक्षित वर्ग द्वारा मैरिट के नाम पर हथिया लिया जाता है, जो अनुचित है। जिस पर रोक लगनी चाहिये। केवल इतना ही नहीं इस मामले में कुछ संगठनों की द्वारा औपचारिक रूप से विरोध भी जताया गया। जिसे आरक्षित वर्ग विरोधी मीडिया द्वारा बढाचढाकर प्रकाशित किया।
विरोध करने वालों के अपने-अपने तर्क हैं, जबकि मैरिट के आधार पर नियुक्ति पाने वाले अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के मैरिट में स्थान प्राप्त करने वालों के पक्ष में संविधान और न्यायपालिका का पूर्ण समर्थन है। यही नहीं प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त भी उनके पक्ष में है, लेकिन इसके बाद भी सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों की पीड़ा को भी नकारा नहीं जा सकता।
यह एक ऐसा विषय है, जिस पर निष्पक्ष रूप से विचार करके देखा जाये तो आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की कुल आबादी देश की कुल आबादी का पिच्यासी फीसदी बतायी जाती है, लेकिन पिच्यासी फीसदी आरक्षित वर्ग के लोगों को मात्र उनंचास फीसदी ही आरक्षण प्रदान किया जा रहा है। ऐसे में शेष अर्थात् छत्तीस फीसदी लोगों का सरकारी सेवाओं में आनुपातिक प्रतिनिधित्व किस प्रकार से सम्भव होगा? इस विषय पर संविधान की मूल भावना अर्थात् सामाजिक न्याय की अवधारणा के प्रकाश में निष्पक्षता पूर्वक विचार नहीं किये जाने के कारण ही ऐसी अप्रिय स्थिति निर्मित की जा रही हैं। जिसके लिये तथाकथित आरक्षण विरोधी राष्ट्रीय मीडिया भी कम दोषी नहीं है।
मीडिया द्वारा आरक्षण के मुद्दे पर आपवादिक अवसरों को छोड़कर अधिकतर केवल भावनात्मक बातों को ही बढावा दिया जाता है। जबकि पृथक निर्वाचक पद्धति की मंजूरी, पृथक निर्वाचक पद्धति का एम के गांधी द्वारा दुराशय पूर्वक विरोध और अन्तत: दबे-कुचले वर्गों के ऊपर पूना पैक्ट को थोपे जाने से लेकर के आज तक के सन्दर्भ में खुलकर चर्चा और विचार करने की सख्त जरूरत है। लेकिन अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त भारत का मीडिया इन ऐतिहासिक और संवैधानिक मुद्दों को कभी भी निष्पक्षता से पेश नहीं करता है। जिसके चलते आरक्षित और अनारक्षित वर्गों के बीच में लगातार खाई बढती पैदा की जा रही है। जिससे समाज का माहौल लगातार खराब हो रहा है। इस बारे में तत्काल सकारत्मक कदम उठाये जाने की जरूरत है। विशेषकर मीडिया को अपना सामाजिक धर्म निभाना होगा।
इसके साथ-साथ भारत सरकार को भी इस बारे में नीतिगत निर्णय लेकर उसे कड़ाई से लागू करना होगा।वर्तमान में जारी जाति आधारित जनगणना के नतीजे इस विषय को हमेशा के लिये सुलझाने के लिये सरकार का मार्गप्रशस्त करेंगे। क्योंकि प्राप्त नतीजों से इस बात का तथ्यात्मक ज्ञान हो सकेगा कि अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की ओर से अपनी जनसंख्या के बारे में किये जाने वाले दावों की सत्यता की पुष्टि हो सकेगी और सरकार को अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या के अनुपात में उन्हें सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व तथा शिक्षण संस्थानों में प्रवेश देने में किसी प्रकार की संवैधानिक या कानूनी अड़चन नहीं होगी।
एक बार दबे-कुचले वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान करना सुनिश्चित कर दिया गया तो फिर मैरिट के आधार पर अजा, अजजा एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की तथाकथित घुसपैठ को रोकना आसान हो जायेगा। और कम से कम इस कारण से सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों के मनोमस्तिष्क में पैदा होने वाले भावनात्मक दुराग्रहों को सदैव के लिये दूर किया जा सकेगा। ऐसे में जाति आधारित जनगणना के नतीजे आने का हम सबको सकारात्मक रूप से इन्तजार और स्वागत करने को तैयार रहना होगा।
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