Sunday, November 13, 2011

दिग्विजय सिंह को बोलने दीजिए, वे अपनी ही जड़ में मट्ठा डाल रहे हैं

कांग्रेस नेतृत्व की संस्कृति को याद कीजिये। इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक अनाप-शनाप बोलने वाले नेताओं को न केवल तरजीह दी थी बल्कि उनके जनविरोधी बयानों व भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वाली मानसिकता का भी पोषण किया जाता था। इंदिरा गांधी के पक्षकार-खुशामदकार नेताओं में देवकांत बरूआ से लेकर राजमंगल पांडे तक एक लम्बी फेहरिस्त थी, जो इंदिरा गांधी को ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ कहते थे। इस राजनीतिक कु-मानसिकता ने इंदिरा गांधी को अराजक और अनियंत्रित राजनीतिक शख्सियत बना दिया था। इसके दुष्परिणाम स्वरूप राष्ट को आजादी के बाद पहली बार आपातकाल को झेलने के लिए विवश होना पड़ा था। इंदिरा गांधी ने आपातकाल के शोर में अपनी सत्ता गंवायी थी।

इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी ने अपार बहुमत से सत्ता पायी थी। अपार बहुमत ने राजीव गांधी को भी सत्य सुनने या फिर जनभावना की कद्र करने की राजनीतिक शक्ति पर पर्दा डाल दिया था। जब तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की भृकुटियां तनी थी तब केके तिवारी और एसएस अहुलवालिया जैसे कांग्रेसी नेता वीपी सिंह और ज्ञानी सिंह के खिलाफ न केवल बयानबाजी करते थे, बल्कि बोफोर्स दलाली कांड के खिलाफ उठने वाले हाथ को कथिततौर से दागदार करने और मनगढ़ंत तथ्य परोसने का काम करते थे। जबकि जनभावना की समझ थी कि राजीव गांधी सत्ता बोफोर्स दलाली कांड में रिश्वत खायी है। खासकर केके तिवारी के बयानों से तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह इतने खफा हुए थे कि उन्होंने अपनी विदाई समारोह में जाने से इनकार कर दिया था। बाद में राजीव गांधी को केके तिवारी को मंत्रिमंडल से निकालना पड़ा था। तभी ज्ञानी जैल सिंह ने अपनी विदाई समारोह में जाने के तैयार हुए थे। केके तिवारी और अहुलवालिया के अनाप-शनाप बयानों ने राजीव गांधी की सत्ता उड़ायी थी और वीपी सिंह की देश की सत्ता पर ताजपोशी हुई थी। केके तिवारी हाशिये पर चले गये पर अहुलवालिया भाजपा की शोभा बढ़ा रहे हैं।

दिग्विजय सिंह कांग्रेस की इसी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। इंदिरा गांधी के समय में जो राजनीतिक विद्रूपता देवकांत बरूआ और राजमंगल पांडेय व राजीव गांधी के समय केके तिवारी-एसएस अहुलवालिया ने फैलायी थी उसी विद्रुपता को दिग्विजय सिंह फैला रहे हैं। देश का सत्ता नेतृत्व मनमोहन सिंह के हाथ में है पर वास्तविक सत्ता की बागडौर किसके हाथ में है कौन नहीं जानता है? दिग्विजय सिंह मनमोहन सिंह को लेकर कुछ ज्यादा आग्रही तो नहीं हैं, पर इतना जरूर है कि उनकी बयानबाजी-क्रियाकलाप सीधे सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रतिनिधित्व करते हैं। 

अब यहां राजनीतिक नफा-नुकसान का सवाल महत्वपूर्ण क्यों नहीं माना जाना चाहिए? राजनीतिक नफा-नुकसान के केन्द्र में कौन होगा? मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी-राहुल गांधी मां-बेटे की जोड़ी। यह मानने में हर्ज नहीं है या फिर मान ही लेना चाहिए कि मनमोहन सिंह अपनी राजनीतिक पारी खेल चुके हैं वे नफा-नुकसान के ग्राह में होंगे, ऐसा नहीं लगता है। मनमोहन सिंह भी यह मान चुके हैं कि उन्हें बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं है। इसलिए कि दिग्विजय सिंह और भ्रष्टचार की एक पर एक कहानियां जो सामने आ रहीं हैं उससे कांग्रेस व सोनिया गांधी-राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य ही ग्रास होगा। कांग्रेस के अंदर में जो राजनीतिक दशा-दिशा देखी जा रही है और जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उससे साफ जाहिर होता है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आज न कल राहुल गांधी का बैठना है। उत्तर प्रदेश चुनाव की आश देखी जा रही है। उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस की चाहे जैसी तकदीर-तस्वीर बनती है राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी तय मानी जा रही है। मनमोहन सिंह और उनके मैनजरों की उदासीनता-लापरवाह नीतियां इसी के द्योतक है।

लोकतंत्र में सत्ता-विपक्ष दोनों को एक दूसरे के खिलाफ अपनी-अपनी नीतियों के आधारशिला पर आलोचना का अधिकार है। विपक्ष को सत्ता पक्ष की अराजक नीतियों और भ्रष्टचार की संलिप्तता पर आलोचना व घेरेबंदी की जिम्मेदारी है। वर्तमान सत्ता को क्या भ्रष्टाचार मुक्त माना जा सकता है? टू जी स्पेक्टरम, देवास, राष्ट्रमंडल जैसे अनेकों भ्रष्टचार की कहानियां क्या कहती है? भ्रष्टाचारियों को जेल जाने से रोकने की पूरी कोशिश होती है। न्यायपालिका सहित अन्य सभी संवैधानिक संस्‍थाओं को गुमराह करने के लिए प्रत्यारोपित तथ्य प्रस्तुत किये जाते हैं। सीबीआई को पॉकिट जांच एजेंसी बना छोड़ा गया है। सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट के फटकार पर भी सीबीआई की ईमानदारी नहीं दिखाती। किसी न किसी प्रकार से सीबीआई का रूख घोटालेबाजों को बचाने और भ्रष्टाचार के दर्ज मुकदमे को कमजोर करने का है। भ्रष्टाचार के खिलाफ उठने वाले हाथ के खिलाफ किस प्रकार षडयंत्र मनमोहन-सोनिया गांधी की सत्ता खेल रही है? यह भी जगजाहिर है। रामदेव और उनके साथ खड़े हजारों लोगों पर लाठियां चलायी जाती हैं। अन्ना हजारे को जेल भेजा जाता है। जनभावनाएं यह सब सच मान चुकी हैं।

दिग्विजय सिंह द्वारा भाजपा की आलोचना पर कोई खास हर्ज नहीं है। भाजपा भी फैशनेबुल और भ्रष्ट नेताओं को पाल रखी है। यदुरप्‍पा प्रकरण इसका उदाहरण है। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले हर शख्स के खिलाफ बयानबाजी करना और छवि खराब करने की नीति कहां तक न्यायोचित मानी जा सकती है? कदापि नहीं। भ्रष्टाचार के खिलाफ उठने वाले हाथों को हतोत्साहित करने के ही हथकंडे हैं। दिग्विजय सिंह ने अपने झूठे और मनगढंत बयानों के निशाने पर किसको छोड़ा है? जनलोकपाल की लड़ाई को दागदार करने के लिए एक पर एक बयानबाजी हुई। अन्ना हजारे की संस्था पर सवाल उठाया गया। अरविन्द केजरीवाल पर हथकंडे अपनाये। सीएजी की विश्वसनीयता को तार-तार करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। किसकी चिंता दिग्विजय सिंह को है? क्या आम आदमी की? नहीं। दिग्विजय की चिंता घोटालेबाजों को जेल से बाहर निकालने का है। खुलेआम वे कहते हैं कि बड़े-बड़े लोगों को जेल में रखना सरासर गलत है, इसलिए उन्हें जेल से रिहा कर दिया जाना चाहिए। देश के अंदर हजारो निर्दोष लोग जेलों में बंद है। गरीब और आम निर्दोष आदमी के पक्ष में एक भी बयान दिग्विजय सिंह का है क्या? दिग्विजय सिंह का एक प्यारा ओसामा बिन लादेन था, जिसे वे लादेन जी कह कर श्रद्धांजलि दी थी। लादेन को लादेन जी कहने पर न तो दिग्विजय सिंह को कोई पछतावा हुआ और न ही कांग्रेस ने आपत्ति दर्शायी। आजमगढ़ की उनकी आतंकवाद को महिमामंडन करने वाली यात्राएं क्या निष्कर्ष देती हैं।

कांग्रेस मौन साध कर बैठी है। मौनी बाबा मनमोहन सिंह को इसकी कोई परवाह नहीं है कि दिग्विजय क्या बोलते हैं और क्या नहीं बोलते हैं। सोनिया गांधी-राहुल गांधी चुप्पी साधे होते हैं। कांग्रेस नेतृत्व के बिना इशारे या अनुमति से दिग्विजय सिंह एक भी शव्द बोल सकते हैं क्या? सोनिया-राहुल के अनुमति के बिना कांग्रेस में एक पत्ता भी हिल-ढुल सकता है? इसलिए दिग्विजय सिंह की अर्नगल बयानबाजी और हथकंडे सोनिया गांधी-राहुल गांधी की भाषा मानी जा रही है। जहां तक भाजपा की बात है तो दिग्विजय सिंह के खिलाफ बोलना समझ से परे है। दिग्विजय सिंह एक तरह से कांग्रेस का जड़ खोद रहे हैं। दिग्विजय सिंह जितना बोलेंगे उतना ही भाजपा और अन्य विपक्षी पार्टियों को मदद करेंगे। इसका परिणाम हिसार में कांग्रेस की पराजय के रूप में देखा जा सकता है। हिसार पराजय के बाद भी कांग्रेस सबक लेने के लिए तैयार नहीं है। इन चुनावों अपराधियों-भ्रष्टाचारियों के खिलाफ खड़े होने वाली कांग्रेस को जनता अपना विश्वास देगी तो क्यों? लोकतंत्र में जनभावनाएं महत्वपूर्ण होती हैं और निर्णायक भी होती है। इस मर्म को समझ कर भी कांग्रेस ना समझ बैठी है। सोनिया गांधी-राहुल गांधी के सेहत के लिए अच्छा तो यही होगा कि ईमनादार लोगों और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वालों पर हथकंडे अपनाने की नीति छोड़ दे। भ्रष्टाचारियों को बेल दिलाने के लिए दिग्विजय सिंह की थ्योरी का तुरंत इलाज करें। नहीं तो इंदिरा गांधी को जो दुर्गति 1977 मे हुई थी और राजीव गांधी की जो दुर्गति 1989 में हुई थी वैसी ही दुर्गति 2014 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी-राहुल गांधी को हो सकती है।

लेखक विष्‍णु गुप्‍त हिंदी के वरिष्‍ठ एंव जनपक्षधर पत्रकार हैं. इन्‍होंने समाजवादी और झारखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई है. पत्रकारिता के ढाई दशक के अपने करियर में झारखंड में दैनिक जागरण, रांची, स्‍टेट टाइम्‍स, जम्‍मू और न्‍यूज एजेंसी एनटीआई के संपादक रह चुके हैं. फिलहाल राजनीतिक टिप्‍पणीकार के रूप में अपना योगदान जारी रखे हुए हैं. इनसे संपर्क 09968997060 के जरिए किया जा सकता है.

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